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________________ www.vitragvani.com 264] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 उत्तर – अपना स्वाधीन चैतन्य आत्मा जैसा है, उसे वैसा नहीं माना; किन्तु उसे जड़-शरीर का कर्ता माना (अर्थात् जड़रूप माना); अतः इस मान्यता में आत्मा के अनन्त गुणों का अनादर है और यही अनन्ती स्व-हिंसा है। स्व-हिंसा ही सबसे बड़ा पाप है। इसे भावहिंसा या भावमरण भी कहते हैं। श्रीमद राजचन्द्रजी ने कहा है - "क्षण क्षण भयंकर भाव-मरण में, कहाँ रे तू रच रहा?" यहाँ भी मिथ्यात्व को ही भाव-मरण कहा है। अगृहीत मिथ्यात्व :___1. यह शरीर जड़ है, यह अपना नहीं है, यह जानने-देखने का कोई कार्य नहीं करता; तथापि इसे अपना मानना और यह मानना कि यदि यह अनुकूल हो तो ज्ञान हो, यह मिथ्यात्व है। ____ 2. शरीर को अपना मानने का अर्थ है, वर्तमान में शरीर का जो देहरूप जन्म हुआ है, वहाँ से, मरण होते तक ही अपने आत्मा का अस्तित्व मानना अर्थात् शरीर का संयोग होने पर आत्मा की उत्पत्ति और शरीर का वियोग होने पर आत्मा का नाश मानना। यही घोर मिथ्यात्व है। 3. शरीर को अपना मानने से, जो बाह्य वस्तु शरीर को अनुकूल लगती है, उस वस्तु को लाभकारक मानता है और अपने लिये अनुकूल मानी गयी वस्तु का संयोग, पुण्य के निमित्त से होता है; इसलिए पुण्य से लाभ होना मानता है, यही मिथ्यात्व है। जो पुण्य से लाभ मानते हैं, उनकी दृष्टि, देह पर है; आत्मा पर नहीं। गृहीत मिथ्यात्व : उपरोक्त तीनों प्रकार अगृहीत मिथ्यात्व के हैं। यह अगृहीत Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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