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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[265 मिथ्यात्व, मूल निगोद से ही अनादि काल से जीव के साथ चला
आ रहा है। एकेन्द्रिय से असैनी पञ्चेन्द्रिय तक तो जीव के हिताहित का विचार करने की शक्ति ही नहीं होती। संज्ञी दशा में मन्द-कषाय से, ज्ञान के विकास से हिताहित का कुछ विचार करने की शक्ति प्राप्त करता है। वहाँ भी आत्मा के हित-अहित का सच्चा विवेक करने की जगह अनादि काल से विपरीत मान्यता का भाव ही चालू रखकर अन्य अनेक प्रकार की नवीन विपरीत मान्यताओं को ग्रहण करता है। अपनी विचार-शक्ति के दुरुपयोग से तीव्र विपरीत मान्यतावाले जीवों की संगति में आकर अनेक प्रकार की नयी-नयी विपरीत मान्यताओं को ग्रहण करता है। इसप्रकार विचार-शक्ति के विकास होने पर, जो नवीन विपरीत मान्यता ग्रहण की जाती है, उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। उसके मुख्य तीन प्रकार हैं - देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और धर्म मूढ़ता अर्थात् लोकमूढ़ता।
देवमूढ़ता – अज्ञानी, रागी, द्वेषी को देव के रूप में मानना, कोई बड़ा कहा जानेवाला आदमी किसी कुदेव को देव मानता हो; इसलिए स्वयं भी उस कुदेव को मानना और उससे कल्याण मानकर उसकी पूजा-वन्दनादि करना तथा अन्य लौकिक लाभादि की आकांक्षा से अनेक प्रकार के कुदेवादि को मानना, वह देवमूढ़ता है।
गुरुमूढ़ता – जिस कुटुम्ब में जन्म हुआ है, उस कुटुम्ब में माने जानेवाले कुलगुरु को समझे बिना मानना। अज्ञानी को गुरुरूप में मानना अथवा गुरु क स्वरूप सग्रन्थ मानना, वह गुरु-सम्बन्धी महाभूल अर्थात् गुरुमूढ़ता है।
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