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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[255 जैसे मैं दशाश्रीमाली वणिक हूँ, - ऐसा ज्ञान स्वयं कभी भूल नहीं जाता। 'मैं दशाश्रीमाली बनिया'- यह नाम तो जन्मने के बाद स्वयं ने माना है। 25-50 वर्ष से शरीर का नाम मिला है, आत्मा कोई स्वयं बनिया नहीं है, तथापि वह रटते-रटते कितना दृढ़ हो गया है ? जब भी बुलावें, तब कहता है कि मैं बनिया हूँ', मैं कोली, भील नहीं हूँ; इस प्रकार कुछ वर्षों से मिले हुए, शरीर का नाम भी नहीं भूलता तो परवस्तु–शरीर-वाणी-मन, बाहर के संयोग तथा पर की ओर के झुकाव से होनेवाले राग-द्वेष के विकारी भावों से भिन्न अपने शुद्ध आत्मा का पहले पक्का ज्ञान
और सच्ची समझ की हो तो उसे कैसे भूल सकता है ? यदि पहले पक्की सच्ची समझ की हो तो वर्तमान में विपरीतता न हो, चूँकि वर्तमान में विपरीतता दिखायी देती है, इससे सिद्ध है कि पहले भी जीव ने विपरीतता की थी।
तू आत्मा अनन्त गुण का पिण्ड अनादि-अनन्त है। उन अनन्त गुणों में एक मान्यता / श्रद्धा नाम के गुण की अवस्था को तेरी विपरीतता से अनादि काल से स्वयं विपरीत करता आया है और उसे तू आगे ही बढ़ाता चला जा रहा है। वह भूल-विपरीततरा (एकसमय की) वर्तमान अवस्था में है; इसलिए वह टाली जा सकती है। अगृहीत मिथ्यात्व :
तू अनादि काल से आत्मा नामक वस्तु है। अर्थात् ‘जन्म से मरण तक ही मैं हूँ', इस प्रकार की मान्यता, विपरीत मान्यता है; क्योंकि जिस वस्तु को कभी किसी ने उत्पन्न ही नहीं किया, उस
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