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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
वस्तु का कभी नाश नहीं हो सकता । 'मैं जन्म से मरण तक ही हूँ' - ऐसी जीव की महाविपरीत मान्यता है, क्योंकि जीव यह मानता है कि मेरे मरण के बाद जो पैसा रहेगा, उसकी बिल ( वसीयत ) करूँ, परन्तु वह यह नहीं विचार करता कि मरने के बाद मैं न जाने कहाँ जानेवाला हूँ; इसलिए अपने आत्मकल्याण के लिये कुछ करूँ । अनादि काल से चली आनेवाली और किसी के द्वारा न सिखाने पर भी बनी हुई जो महाविपरीत मान्यता है, उसे अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। ऐसी विपरीत मान्यता स्वयं अपने आप ही करता है, उसे कोई सिखाता नहीं है ।
जैसे बालक को रोना सिखाना नहीं पड़ता; उसी प्रकार मैं जन्म-मरण तक ही हूँ; इस प्रकार की मान्यता किसी के सिखाये बिना ही हुई है । जो शरीर है, सो मैं हूँ, रुपये-पैसे में मेरा सुख है, इत्यादि परवस्तु में अपनेपन की जो मान्यता है - सो अगृहीत विपरीत मान्यता है, जो जीव के अनादि काल से चली आ रही है।
जो शरीर है वह ही मैं हूँ; इसलिए शरीर के हलन चलन की क्रिया मैं कर सकता हूँ; इस प्रकार अज्ञानी जीव मानता है और शरीर को अपना मानने से बाहर की जिस वस्तु से शरीर को सुविधा मानता है, उस के प्रीति और राग हुए बिना नहीं रहता । इसलिए उसके अव्यक्तरूप में ऐसी मान्यता बन जाती है कि मुझे पुण्य से सुख होता है । बाहर की सुख-सुविधा का कारण पुण्य है, यदि मैं पुण्य करूँ तो मुझे उसका फल मिलेगा; इस प्रकार किसी के द्वारा
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