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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
अशुभभाव कभी-कभी आते भी हों तो भी उस समय नये भव की आयु का बन्ध नहीं होता क्योंकि अन्तरङ्ग में द्रव्यदृष्टि का जोर बेहद बढ़ा हुआ रहता है और वह जोर भव को बिगड़ने नहीं देता है; तथा भव को बढ़ने नहीं देता है । जहाँ द्रव्यस्वभाव पर दृष्टि पड़ी कि स्वभाव अपना कार्य बिना किए नहीं रहेगा, इसलिए द्रव्यदृष्टि होने के बाद नीचगति का बन्ध या संसारवृद्धि नहीं हो सकती, ऐसा ही द्रव्यस्वभाव है ।
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(−21-9-1944 की चर्चा के आधार से सोनगढ़)
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द्रव्यदृष्टि को क्या मान्य है ? :
अतः
द्रव्यदृष्टि कहती है कि 'मैं मात्र आत्मा को ही स्वीकार करती हूँ'- आत्मा में पर का सम्बन्ध नहीं हो सकता; पर सम्बन्धी भावों को यह दृष्टि स्वीकार नहीं करती है। अरे ! चौदह गुणस्थान के भेदों को भी, पर संयोग से होने के कारण यह दृष्टि स्वीकार नहीं करती है; इस दृष्टि को तो मात्र आत्मस्वभाव ही मान्य है।
जो जिसका स्वभाव है, उसमें उसका कभी भी किञ्चित् भी अभाव नहीं हो सकता और जो किञ्चित् भी अभाव या हीनाधिक हो सके, वह वस्तु का स्वभाव नहीं है। अर्थात् जो त्रिकाल एकरूप रहे, वही वस्तु का स्वभाव है। यह दृष्टि इसी स्वभाव को स्वीकार करती है । द्रव्यदृष्टि कहती है कि मैं जीव को मानती हूँ, वह जीव कितना ?... सम्बन्ध रहित रहे, उतना । अर्थात् सर्व पर पदार्थों का सम्बन्ध निकाल डालने पर जो अकेला स्वतत्त्व रहे, उसे ही मैं स्वीकार करती हूँ । मेरे लक्ष्य रूप चैतन्य भगवान की पहचान परनिमित्त की अपेक्षा से कराऊँ
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