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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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भव न होने से द्रव्यस्वभाव की दृष्टि में भव का अभाव ही है, अर्थात् द्रव्यदृष्टि भव को नहीं स्वीकारती है।
आत्मा का स्वभाव नि:संदेह है, इसलिए उसमें 1. सन्देह, 2. राग-द्वेष या 3. भव नहीं है; अतः सम्यग्दृष्टि को निजस्वरूप का 1. सन्देह नहीं, 2. राग-द्वेष का आदर नहीं, 3. भव की शङ्का नहीं । दृष्टि, मात्र स्वभाव को ही देखती है । दृष्टि, परवस्तु या पर निमित्त की अपेक्षा से होनेवाले विभावभावों को भी नहीं स्वीकारती है । इसलिए विभावभाव के निमित्त से होनेवाले भव भी, द्रव्यदृष्टि के लक्ष्य में नहीं होते । दृष्टि, मात्र स्ववस्तु को ही देखती है, इसलिए उसमें परद्रव्य सम्बन्धी निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध भी नहीं है । निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्धरहित अकेला स्वभावभाव ही द्रव्यदृष्टि का विषय है । स्वभावभाव में अर्थात् द्रव्यदृष्टि में भव नहीं; इस तरह स्वदृष्टि का जोर, नये भव के बन्धन को उपस्थित नहीं होने देता । जहाँ द्रव्यदृष्टि नहीं होती, वहाँ भव का बन्धन उपस्थित हुए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उसकी दृष्टि द्रव्य पर नहीं, पर्याय पर है तथा रागयुक्त है । ऐसी दृष्टि तो बन्धन का ही कारण होती है ।
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द्रव्यदृष्टि भव को बिगड़ने नहीं देती :
द्रव्यदृष्टि होने के बाद चारित्र में कुछ अस्थिरता रह भी जाए और एक-दो भव हो भी जाए तो भी वे भव बिगड़ते नहीं हैं।
द्रव्यदृष्टि के बाद जीव कदाचित् शत्रुओं के संहारार्थ युद्ध में तत्पर होकर वाण पर वाण छोड़ रहा हो; नील, कापोत, लेश्या के
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