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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[239 विकल्प का अवलम्बन तोड़कर, जब तक स्वयं स्वानुभव न करे, तब तक जीव को सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता और उसका कल्याण नहीं हो सकता।' ___ समयसार की 141वीं गाथा में कहा है कि – 'जीव में कर्म बँधा हुआ है तथा स्पर्शित है, ऐसा व्यवहारनय का कथन है' टीका - .... जीव में कर्म बद्धस्पृष्ट है, ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है..... जीव में कर्म अबद्धस्पृष्ट है, ऐसा निश्चयनय का पक्ष है।अब आचार्यदेव कहते हैं कि – 'किन्तु इससे क्या? जो आत्मा इन दोनों नयों को पार कर चुका है, वही समयसार है' – इस प्रकार 142वीं गाथा में कहते हैं।'
परद्रव्यों के संयोग-वियोग से आत्मा को लाभ होता है - इस मान्यता का पहले ही निषेध किया है और इस स्थूल मान्यता का भी निषेध किया है कि पुण्य से धर्म होता है। इस प्रकार पर की ओर के विचार को और स्थूल मिथ्यामान्यता को छोड़कर, अब जो स्वोन्मुख होना चाहता है, ऐसा जीव एक आत्मा में 'निश्चय से शुद्ध और व्यवहार से अशुद्ध' – ऐसे दो भेद करके, उसके विचार में अटक रहा है, किन्तु विकल्प से पार होकर साक्षात् अनुभव नहीं करता, उसे वह विकल्प छुड़ाकर अनुभव कराने के लिए आचार्यदेव ने यह 142वीं गाथा कही है।
अन्य पदार्थों का विचार छोड़कर एक आत्मा में दो विभेदों (पहलुओं) के विचार में लग गया, किन्तु आचार्यदेव कहते हैं कि इससे क्या? जब तक वह विकल्प के अवलम्बन में रुका रहेगा, तब तक धर्म नहीं है; इसलिए जैसा स्वभाव है, वैसा ही अनुभव कर। अनुभव करनेवाली पर्याय स्वयं द्रव्य में लीन-एकाकार हो
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