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________________ www.vitragvani.com 240] [ सम्यग्दर्शन : भाग-1 जाती है और उस समय विकल्प टूट जाता है, ऐसी दशा ही समयसार है, वही सम्यग्दर्शन है, वही सम्यग्ज्ञान है । परवस्तु में सुख है या मैं पर का कार्य कर सकता हूँ और मेरा कार्य पर से होता है - यह स्थूल मिथ्या मान्यता है और आत्मा को अमुक वस्तु खपती है, अमुक नहीं खपती – ऐसा विकल्प भी स्थूल परिणाम है, उसमें धर्म नहीं है और मैं 'शुद्ध आत्मा हूँ तथा राग मेरा स्वरूप नहीं है', ऐसा रागमिश्रित विचार करना भी धर्म नहीं है। इस राग का अवलम्बन छोड़कर, आत्मस्वभाव का अनुभव करना, वह धर्म है। एकबार विकल्प को तोड़कर शुद्धस्वभाव का अनुभव करने के बाद जो विकल्प उठते हैं, उन विकल्पों में सम्यग्दृष्टि जीव को एकत्वबुद्धि नहीं होती, इसलिए वे विकल्पमात्र अस्थिरतारूप दोष हैं; परन्तु वे सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान को मिथ्या नहीं करते, क्योंकि विकल्प के समय भी सम्यग्दृष्टि को उनका निषेध वर्तता है । कितने ही अज्ञानी ऐसी शङ्का करते हैं कि यदि जीव को सम्यग्दर्शन हुआ हो और आत्मा की प्रतीति हो गयी हो तो उसे खाने-पीने इत्यादि का राग कैसे होता है ? किन्तु ज्ञानी कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि के राग हुआ तो इससे क्या ? उस राग के समय उसके निषेधक सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान होते हैं या नहीं ? जो राग होता है, वह श्रद्धा - ज्ञान को मिथ्या नहीं करता । ज्ञानी को चारित्र की कमजोरी से राग होता है, वहाँ अज्ञानी उस राग को ही देखता है; परन्तु राग का निषेध करनेवाले श्रद्धा और ज्ञान को नहीं पहचानता । मिथ्यादृष्टि जीव, स्वभाव का अनुभव करने के लिए ऐसा विचार करता है कि ‘स्वभाव से मैं अबन्ध निर्दोष तत्त्व हूँ और Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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