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महापाप-मिथ्यात्व (1))
परद्रव्य के प्रति राग होने पर भी, जो जीव – मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे बन्ध नहीं होता – ऐसा मानता है, उसके सम्यक्त्व कैसा? वह व्रत, समिति इत्यादि का पालन करे तो भी स्व-पर का ज्ञान न होने से वह पापी ही है। मुझे बन्ध नहीं होता – ऐसा मानकर जो स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हैं, उनके भला सम्यग्दर्शन कैसा? __यदि यहाँ कोई पूछे कि – 'व्रत-समिति' तो शुभ कार्य हैं, तो फिर व्रत-समिति को पालने पर भी उस जीव को पापी क्यों कहा?
समाधान - सिद्धान्त में पाप मिथ्यात्व को ही कहा है। जहाँ तक मिथ्यात्व रहता है, वहाँ तक शुभ-अशुभ सर्व क्रियाओं को अध्यात्म में परमार्थ से पाप ही कहा जाता है, फिर व्यवहारनय की प्रधानता में व्यवहारी जीवों को अशुभ से छुड़ाकर शुभ में लगाने के लिये शुभक्रिया को कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है। ऐसा कहने से स्याद्वादमत में कोई विरोध नहीं है। (-श्री समयसार कलश - 137 का भावार्थ )
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