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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 जो अपना स्वभाव है, उसकी श्रद्धा करना, यह निर्मल बुद्धिमान जीवों का कर्तव्य है । अपने भवरहित स्वभाव की श्रद्धा से अल्प काल में ही भवरहित हो जाएगा। इसलिए हे भाई! पहले तू किसी भी प्रयत्न से परम पुरुषार्थ के द्वारा सम्यग्दर्शन प्रगट कर।
प्रश्न - आप सम्यग्दर्शन का अपार माहात्म्य बतलाते हैं, यह तो ठीक है, यही करने योग्य है, किन्तु यदि उसका स्वरूप समझ में न आये तो क्या करना चाहिए?
उत्तर – सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त आत्मकल्याण का दूसरा कोई मार्ग / उपाय तीन काल-तीन लोक में नहीं है; इसलिए जब तक सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझ में न आये, तब तक उसका ही अभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिए। आत्मस्वभाव की यथार्थ समझ का ही प्रयत्न करते रहना चाहिए, यही सीधा-सच्चा उपाय है। यदि तुझे आत्मस्वभाव की यथार्थ रुचि है और सम्यग्दर्शन की अपार महिमा को समझकर उसकी अभिलाषा हुई है तो तेरा समझने का प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाएगा। स्वभाव की रुचिपूर्वक जो जीव, सत् के समझने का अभ्यास करना है, उस जीव के प्रतिक्षण मिथ्यात्वभाव की मन्दता होती है। एकक्षण भी समझने का प्रयत्न निष्फल नहीं जाता, किन्तु प्रतिक्षण उसका कार्य होता ही रहता है। स्वभाव की प्रीति से जो जीव समझना चाहता है, उस जीव के ऐसी निर्जरा प्रारम्भ होती है, जो कभी अनन्त काल में भी नहीं हुई थी। श्री पद्मनन्दि आचार्य ने कहा है कि – इस चैतन्यस्वरूप आत्मा की बात भी जिस जीव ने प्रसन्नचित से सुनी है, वह मुक्ति के योग्य है।
इसलिए हे भव्य! इतना तो अवश्य करना।
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