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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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मेरा स्वभाव रागरहित है, ऐसे वीतराग अभिप्रायसहित (स्वभाव के लक्ष्य से अर्थात् द्रव्यदृष्टि से) जो परिणमन हुआ, उसमें प्रतिक्षण राग दूर होता है और अल्प काल में उसका नाश होता है, यह सम्यग्दर्शन की महिमा है, किन्तु जो पर्यायदृष्टि ही रखकर अपने को रागयुक्त जान ले तो राग किस प्रकार दूर हो ? 'मैं रागी हूँ' – ऐसे रागीपन के अभिप्राय से (विकार के लक्ष्य से, पर्यायदृष्टि से ) जो परिणमन होता है, उसमें राग की उत्पत्ति हुआ करती है, किन्तु राग से दूर नहीं होता। इसलिए पर्याय में राग होने पर भी, उसी समय पर्यायदृष्टि को छोड़कर, स्वभावदृष्टि से रागरहित चैतन्यस्वभाव की श्रद्धा करना आचार्य भगवान बतलाते हैं और यही मोक्षमार्ग का क्रम है।
आत्मार्थी का यह प्रथम कर्तव्य है कि यदि पर्याय में राग छुट न हो सके तो भी ‘मेरा स्वरूप रागरहित है, ऐसी श्रद्धा अवश्य करना चाहिये' आचार्यदेव कहते हैं कि यदि तुझसे चारित्र नहीं हो सकता तो श्रद्धा में टालमटोल मत करना। अपने स्वभाव को अन्यथा नहीं मानना। हे जीव! तू अपने स्वभाव को स्वीकार कर, स्वभाव जैसा है, उसे वैसा ही मान। जिसने पूर्ण स्वभाव को स्वीकार करके सम्यग्दर्शन को टिका रखा है, यह जीव अल्प काल में ही स्वभाव के बल से स्थिरता प्रगट करके मुक्त हो जाएगा। मुख्यतः पञ्चम काल के जीवों से आचार्यदेव कहते हैं कि - इस दग्ध पञ्चम काल में तुम शक्तिरहित हो, किन्तु तब भी केवल शुद्धात्मस्वरूप का श्रद्धान तो अवश्य करना। इस पञ्चम काल में साक्षात् मुक्ति नहीं है, किन्तु भवभय को नाश करनेवाला
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