SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 232] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 न हो सके और राग रह जाये तो उस राग को मोक्ष का हेतु नहीं मानना; रागरहित अपने चैतन्यस्वभाव की श्रद्धा रखना। कोई ऐसा माने कि पर्याय में राग हो, तब तक रागरहित स्वभाव की श्रद्धा कैसे हो सकती है? पहले राग दूर हो जाए, फिर रागरहित स्वभाव की श्रद्धा हो। इस प्रकार जो जीव, राग को ही अपना स्वरूप मानकर सम्यक्श्रद्धा भी नहीं करता, उससे आचार्य भगवान कहते हैं कि हे जीव! तू पर्यायदृष्टि के राग को अपना स्वरूप मान रहा है, किन्तु पर्याय में राग होते हुए भी, तू पर्यायदृष्टि छोड़कर स्वभावदृष्टि से देख तो तुझे रागरहित अपने स्वरूप का अनुभव हो! जिस समय क्षणिक पर्याय में राग है, उसी समय ही रागरहित त्रिकाली स्वभाव है; इसलिए पर्यायदृष्टि छोड़कर, तू अपने रागरहित स्वभाव की प्रतीति रखना; इस प्रतीति के बल से अल्प काल में राग दूर हो जाएगा, किन्तु इस प्रतीति के बिना कभी राग नहीं टल सकेगा। __'पहले राग दूर हो जाये तो मैं रागरहित स्वभाव की श्रद्धा करूँ'- ऐसा नहीं है। आचार्यदेव कहते हैं कि पहले तू रागरहित स्वभाव की श्रद्धा कर तो उस स्वभाव की एकाग्रता द्वारा राग दूर हो। 'राग दूर हो तो श्रद्धा करूँ' अर्थात् 'पर्याय सुधरे तो द्रव्य मानूँ' - ऐसी जिसकी मान्यता है, वह जीव, पर्यायदृष्टि है - पर्यायमूढ़ है; उसके स्वभावदृष्टि नहीं है और वह मोक्षमार्ग के क्रम को नहीं जानता, क्योंकि सम्यक्श्रद्धा के पहले सम्यक्चारित्र की इच्छा रखता है। 'रागरहित स्वभाव की प्रतीति करूँ तो राग दूर हो', ऐसे अभिप्राय में द्रव्यदृष्टि है और द्रव्यदृष्टि के बल से पर्याय में निर्मलता प्रगट होती है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy