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________________ www.vitragvani.com हे भव्य ! इतना को अवश्य करना ! आचार्यदेव सम्यग्दर्शन मुख्य जोर देकर कहते हैं कि हे भाई! तुझसे अधिक न हो तो भी थोड़े में थोड़ा सम्यग्दर्शन तो अवश्य रखना । यदि तू इससे भ्रष्ट हो गया तो किसी भी प्रकार तेरा कल्याण नहीं होगा । चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन में अल्प पुरुषार्थ है; इसलिए सम्यग्दर्शन अवश्य करना सम्यग्दर्शन का ऐसा स्वभाव है कि जो उसे धारण करते हैं, वे जीव क्रमशः शुद्धता की वृद्धि करके अल्प काल में मुक्तदशा प्राप्त कर लेते हैं । वह जीव को अधिक समय तक संसार में नहीं रहने देता । आत्मकल्याण का मूलकारण सम्यग्दर्शन है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता पूर्ण मोक्षमार्ग है । हे भाई! यदि तुझसे सम्यग्दर्शनपूर्वक राग को छोड़कर चारित्रदशा प्रगट हो सके तो वह अच्छा है और यही करने योग्य है, किन्तु यदि तुझसे चारित्रदशा प्रगट न हो सके तो कम से कम आत्मस्वभाव की यथार्थ श्रद्धा तो अवश्य करना, इस श्रद्धामात्र से भी अवश्य तेरा कल्याण होगा। मात्र सम्यग्दर्शन से भी तेरा आराधकत्व चलता रहेगा। वीतरागदेव के कहे हुए व्यवहार का विकल्प भी हो तो उसे भी बन्धन मानना। पर्याय में राग होता हो, तथापि ऐसी प्रतीति रखना कि राग मेरा स्वभाव नहीं है और इस राग के द्वारा मुझे धर्म नहीं है ऐसे रागरहित स्वभाव की श्रद्धासहित यदि रागरहित चारित्रदशा हो सके तो वह प्रगट करके स्वरूप में स्थिर हो जाना, किन्तु यदि ऐसा Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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