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(महापाप-मिथ्यात्व (2))
सच्चे देव-शास्त्र-गुरु-धर्म के लिए तन-मन-धन-सर्वस्व समर्पित करे, सिरच्छेद होने पर भी कुगुरु-कुदेव-कुधर्म को न माने, कोई शरीर को जला दे तो भी मन में क्रोध न करे और परिग्रह में वस्त्र का एक तार भी न रखे, तथापि आत्मा की पहिचान के बिना जीव की दृष्टि पर के ऊपर और शुभराग पर रह जाती है; इसलिए उसका मिथ्यात्व का महापाप दूर नहीं होता। स्वभाव
को और राग को उनके निश्चित लक्षणों के द्वारा भिन्नभिन्न जान लेना ही सम्यग्दर्शन का यथार्थ कारण है। निमित्त का अनुसरण करनेवाले भाव और उपादान का अनुसरण करतेवाले भाव-दोनों भिन्न-भिन्न हैं। प्रारम्भ में कथित वे सभी भाव, निमित्त का अनुसरण करते हैं। निमित्त के बदल जाने से सम्यग्दर्शन नहीं होता, किन्तु निमित्त की ओर के लक्ष्य को बदलकर उपादान में लक्ष्य करे तो सम्यग्दर्शन होता है। निमित्त के लक्ष्य से बन्ध है और उपादान के लक्ष्य से मुक्ति होती है।
(-मार्गशीर्ष शुक्ल 1, संवत् 2002 समयसार के प्रवचन से)
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