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पुनीत सम्यग्दर्शन) 'आत्मा है, पर से भिन्न है, पुण्य-पाप रहित ज्ञाता ही है' -इतना मात्र जान लेने से सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा तो अनन्त संसारी जीव हों वे भी जानते हैं। जानना तो ज्ञान के विकास का कार्य है, उसके साथ परमार्थ के सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध नहीं है। __ मैं आत्मा हूँ और पर से भिन्न हूँ – इतना मात्र मान लेना यथार्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा में मात्र अस्तित्व ही नहीं है और मात्र ज्ञातृत्व ही नहीं है, परन्तु आत्मा में ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, सुख, वीर्य, इत्यादि अनन्त गुण हैं । उस अनन्त गुणस्वरूप आत्मा के स्वानुभव के द्वारा जब तक आत्मसन्तोष न हो, तब तक सम्यग्दृष्टिपना नहीं होता।
नव तत्त्वों का ज्ञान तथा पुण्य-पाप से आत्मा भिन्न है, ऐसा जो ज्ञान है, इन सबका प्रयोजन स्वानुभव ही है। स्वानुभव की गन्ध न हो और मात्र विकल्पों के द्वारा ज्ञान में जो कुछ जाना है, उतने ज्ञातृत्व में ही सन्तोष मानकर अपने को स्वयं ही सम्यग्दृष्टि माने तो उस मान्यता में सम्पूर्ण परम आत्मस्वभाव का अनादर है। विकल्परूप ज्ञातृत्व से अधिक कुछ भी न होने पर भी, जो जीव अपने में सम्यग्दृष्टिपना मान लेता है, उस जीव को परम कल्याणकारी सम्यग्दर्शन के स्वरूप की ही खबर नहीं है। सम्यग्दर्शन अभूतपूर्व वस्तु है, वह ऐसी मुफ्त की चीज नहीं है कि जो विकल्प के द्वारा
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