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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
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प्राप्त हो जावे, किन्तु परम पवित्र स्वभाव के साथ परिपूर्ण सम्बन्ध रखनेवाला सम्यग्दर्शन विकल्पों से परे, सहज स्वभाव के स्वानुभव प्रत्यक्ष से प्राप्त होता है। जब तक सहज स्वभाव का स्वानुभव, स्वभाव की साक्षी से प्राप्त नहीं होता, तब तक उसी में सन्तोष न मानकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के परम उपाय में निरन्तर जाग्रत रहना चाहिए - यह निकट भव्यात्माओं का कर्तव्य है, परन्तु 'मुझे तो सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है, अब मात्र चारित्रमोह रह गया है ' - ऐसा मानकर बैठे रहकर, पुरुषार्थ हीनता का शुष्कता का सेवन नहीं करना चाहिए। यदि जीव ऐसा करेगा तो स्वभाव उसकी साक्षी नहीं देगा और सम्यग्दृष्टिपने के झूठे भ्रम में ही जीवन व्यर्थ चला जायेगा। इसलिए ज्ञानीजन सचेत करते हुए कहते हैं कि - 'ज्ञान, चारित्र और तप तीनों गुणों को उज्ज्वल करनेवाली सम्यक् श्रद्धा प्रधान आराधना है! एक सम्यक्त्व की अकथ और अपूर्व महिमा को जानकर उस पवित्र कल्याणमूर्तिस्वरूप सम्यग्दर्शन को अनन्तानन्त दुःखरूप अनादि संसार की आत्यन्तिक निवृत्ति के हेतु, हे भव्य जीवो! भक्तिपूर्वक अङ्गीकार करो, प्रतिसमय आराधन करो।' ( - आत्मानुशासन - गाथा - 10 ) निःशङ्क सम्यग्दर्शन होने से पूर्व सन्तोष मान लेना और उस आराधना को एक ओर छोड़ देना, इसमें अपने आत्मस्वभाव का और कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन का महा अपराध और अभक्ति है, जिसके महादुःखदायी फल का वर्णन नहीं किया जा सकता। जैसे सिद्धों का वर्णन नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार मिथ्यात्व के दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता।
आत्मवस्तु मात्र द्रव्यरूप नहीं, किन्तु द्रव्य-गुण- पर्याय -स्वरूप
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