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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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वह कोई है ही नहीं – ऐसी जहाँ रुचि हुई कि उसे दूर करने का अधैर्य कैसे हो सकता है ? स्वभावोन्मुख होकर उसका निषेध किया है; इसलिए विकल्प अल्प काल में वह दूर हो ही जाता है । ऐसा विकल्प नहीं होता कि 'उसका निषेध करूँ'; किन्तु स्वभाव में वह निषेधरूप ही है; इसलिए स्वभाव का अनुभव / विश्वास करने पर उसका निषेध स्वयं हो जाता है ।
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जहाँ आत्मस्वभाव की रुचि हुई कि वहीं पुण्य-पाप के निषेध की श्रद्धा हो जाती है। आत्मस्वभाव में पुण्य-पाप नहीं है; इसलिए आत्मा में पुण्य-पाप का निषेध करने योग्य है – ऐसी रुचि जहाँ हुई, वहीं श्रद्धा में पुण्य-पाप-व्यवहार का निषेध हो ही जाता है। रुचि और अनुभव के बीच जो विलम्ब होता है, उसका भी निषेध ही है । जिसे स्वभाव की रुचि हो गयी है, उसे विकल्प को तोड़कर अनुभव करने में भले ही विलम्ब लगे, तथापि उन विकल्पों का तो उसके निषेध ही है । यदि विकल्प का निषेध न हो तो स्वभाव की रुचि कैसी ? और यदि स्वभाव की रुचि के द्वारा विकल्प का निषेध होता है तो फिर उस विकल्प को तोड़कर अनुभव होने में उसे शङ्का कैसी? रुचि होने के बाद जो विकल्प रह जाता है, उसका भी रुचि निषेध ही करती है; इसलिए रुचि और अनुभव के बीच काल -भेद की स्वीकृति नहीं है । जिसे स्वभाव की रुचि हो गयी है, उसे रुचि और अनुभव के बीच जो अल्पकालिक विकल्प होता है, उसका रुचि में निषेध है; इस प्रकार जिसे स्वभाव की रुचि हो गयी है, उसे अन्तरङ्ग से अधैर्य नहीं होता, किन्तु स्वभाव की रुचि के बल से ही शेष विकल्पों को तोड़कर अल्प काल में स्वभाव का प्रगट अनुभव करता है।
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