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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 पापदि व्यवहार का निषेध स्वयं हो जाता है। जो यह मानता है कि मैं अभी तो पुण्य-पापादि का निषेध नहीं करता, किन्तु बाद में निषेध कर दूंगा – ऐसा जो मानता है, उसे स्वभाव की रुचि नहीं, परन्तु पण्य-पाप की ही रुचि है, यदि तुझे स्वभाव के प्रति रुचि हो
और समस्त पुण्य-पाप व्यवहार के निषेध की रुचि हो तो स्वभावान्मुख होकर अभी ही निषेध करना योग्य है – ऐसा निर्णय कर। रुचि के लिये काल-मर्यादा नहीं होती। श्रद्धा हो, किन्तु श्रद्धा का कार्य न हो - ऐसा नहीं हो सकता। हाँ! ___ यह बात अलग है कि श्रद्धा में निषेध करने के बाद पुण्य-पाप के दूर होने में थोड़ा समय लग जाए, किन्तु जिसे स्वभाव की रुचि है और जिसकी ऐसी भावना है कि पुण्य -पाप के निषेध की श्रद्धा करने योग्य है - तो वह श्रद्धा में तो पुण्य -पाप का निषेध वर्तमान में ही करता है। यदि कोई वर्तमान में श्रद्धा में पुण्य-पाप का आदर करे तो उसके उनके निषेध की श्रद्धा कहाँ रही? श्रद्धा तो परिपूर्ण स्वभाव को ही वर्तमान मानती है।
जिसे स्वभाव की रुचि - स्वभाव का आदर हुआ और पुण्यपाप के विकल्प के निषेध की रुचि एवं आदर हुआ, उसके अन्तरङ्ग से अधैर्य टूट जाता है। अब सम्पूर्ण स्वभाव की रुचि में बीच में जो कुछ भी राग-विकल्प उठता है, उसका निषेध करके स्वभावोन्मुख होना, वही यही एक कार्य रह जाता है। स्वभाव की श्रद्धा के बल से उसका निषेध किया सो किया, अब ऐसा कोई भी विकल्प या राग नहीं आ सकता कि जिसमें एकताबुद्धि हो और एकत्वबुद्धि के बिना होनेवाले जो पुण्य-पाप के विकल्प हैं, उन्हें दूर करने के लिए श्रद्धा में अधैर्य नहीं होता, क्योंकि मेरे स्वभाव में
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