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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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लक्ष्य रखकर सुने तो भी दूसरों की अपेक्षा भिन्न प्रकार का महान पुण्य हो जाये और यदि आत्मा का लक्ष्य रखकर अन्तर में समझे, तब तो जो अनन्त काल नहीं मिला - ऐसे अपूर्व सम्यग्दर्शन का लाभ हो। यह बात सुनने को मिलना भी दुर्लभ है।
(23) अपनी पर्याय को मैं अन्तरोन्मुख करता हूँ, पर्याय की क्रिया में परिवर्तन होता जा रहा है, निर्मलता में वृद्धि हो रही है'ऐसा विकल्प रहे, वह राग है। अन्तरस्वभावोन्मुख होने से उत्तरोत्तरप्रतिक्षण वह विकल्प नष्ट होता जाता है। जब आत्मा के लक्ष्य से एकाग्र होने लगता है, तब भेद के विकल्प की क्रिया का क्षय हो जाता है और जीव निष्क्रिय चिन्मात्रस्वभाव का अनुभव करता है - ऐसी सम्यग्दर्शन की अन्तर क्रिया है, वही धर्म की प्रथम क्रिया है। आत्मा में जो निर्मलपर्याय प्रगट होती है, वह स्वयं धर्मक्रिया है; परन्तु 'मैं निर्मलपर्याय प्रगट करूँ, अभेद आत्मा की ओर पर्याय को उन्मुख करूँ'- ऐसा जो भेद का विकल्प है, वह राग है; वह धर्म की क्रिया नहीं है, अनुभव के समय उस विकल्प की क्रिया का अभाव है, इससे – 'निष्क्रिय चिन्मात्रभाव को प्राप्त होता है'- ऐसा कहा है। निष्क्रिय चिन्मात्रभाव की प्राप्ति ही सम्यग्दर्शन है।
(24) मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ, राग की क्रिया मैं नहीं हूँ – इस प्रकार पहले द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप निश्चित करने में राग था, किन्तु द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप जानकर अभेदस्वभाव में ढलने से भेद का लक्ष्य छूट जाता है और सम्यग्दर्शन होता है। पहले द्रव्य -गुण-पर्याय को जाना, उसकी अपेक्षा इमसें अनन्तगुना पुरुषार्थ है। यह अन्तरस्वभाव की क्रिया है, इसमें स्वभाव का
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