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________________ www.vitragvani.com 218] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 अपूर्व पुरुषार्थ है। स्वभाव के अनन्त पुरुषार्थ के बिना यदि संसार से पार हो सकते तो सभी जीव, मोक्ष में चले जाते ! पुरुषार्थ के बिना यह बात समझ में नहीं आ सकती; स्वभाव की रुचिपूर्वक अनन्त पुरुषार्थ होना चाहिए। इसे समझने के लिये धैर्यपूर्वक सद्गुरुगम से अभ्यास करना चाहिए। ___ (25) पहले तो अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय को जान ले, वह जीव अपने द्रव्य-गुण-पर्याय को जानता है और पश्चात् अन्तर में अपने अभेदस्वभाव की ओर उन्मुख होकर आत्मा को जानने से उसका मोह नष्ट हो जाता है। 'अन्तर में ढलता हूँ, इसलिए तत्काल कार्य प्रगट होगा'-ऐसे विकल्पों को भी छोड़कर, क्रमश: सहज स्वभाव में ढ़लता जाता है, वहाँ मोह निराश्रय होकर नाश को प्राप्त होता है। ( 26 ) इस 80 वीं गाथा में भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने सम्यग्दर्शन का अपूर्व उपाय बतलाया है। जो आत्मा, अरहन्त भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय को जान ले, उसे अपने आत्मा की खबर पडे कि मैं भी अरहन्त की जाति का हूँ, अरहन्तों की पंक्ति में बैठ सकूँ – ऐसा मेरा स्वभाव है। ऐसा निश्चित कर लेने के पश्चात्, पर्याय में जो कचास (कमी) है, उसे दूर करके अरहन्त जैसी पूर्णता करने के लिये अपने आत्मस्वभाव में ही एकाग्र होना रहा; इसलिए वह जीव अपने आत्मा की ओर उन्मुख होने की क्रिया करता है और सम्यग्दर्शन प्रगट करता है। यह सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की क्रिया का वर्णन है। यह धर्म की सबसे पहली क्रिया है। छोटा से छोटा जैनधर्मी अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि होने की यह बात है। इसे समझे बिना किसी जीव को छठे-सातवें गुणस्थान Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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