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________________ www.vitragvani.com 216] [ सम्यग्दर्शन : भाग-1 का क्षय हो जाता है और आत्मा का निर्विकल्प अनुभव होता है। जब जीव को ऐसा अनुभव हुआ, तब वह सम्यग्दृष्टि हुआ, जैनधर्मी हुआ। इसके बिना वास्तव में जैनधर्मी नहीं कहलाता । सम्यग्दृष्टि अर्थात् पहले में पहला जैन कैसे हुआ जाता है उसकी यह रीति कही जाती है । आत्मा, पर के कार्य करता है ऐसा माननेवाला तो स्थूल मिथ्यादृष्टि अजैन है। पुण्य-पाप के भाव हों, उन्हें आत्मा का कर्तव्य माननेवाला तो मिथ्यादृष्टि है, उसके जैनधर्म नहीं है और 'अन्तर में जो निर्मलपर्याय हो, उसे मैं करता हूँ' – इस प्रकार आत्मा में कर्ता-कर्म के भेद के विकल्प में रुका रहे तो भी मिथ्यात्व दूर नहीं होता। 'मेरी पर्याय अन्तरोन्मुख होती है, पहली पर्याय की अपेक्षा दूसरी पर्याय में अन्तर की एकाग्रता बढ़ती जाती है'— इस प्रकार कर्ता-कर्म और क्रिया के भेद का लक्ष्य रहे, वह विकल्प की क्रिया है । अन्तरस्वभावोन्मुख होने से उस विकल्प की क्रिया का क्षय होता जाता है और आत्मा निष्क्रिय (विकल्प की क्रियारहित) चिन्मात्रभाव को प्राप्त होता है; इसलिए वह जीव सम्यग्दृष्टि हुआ, धर्मी हुआ, जैन हुआ । पश्चात् अस्थिरता के कारण से जो राग-द्वेष के विकल्प उठें, उनमें एकताबुद्धि नहीं होती और स्वभाव की दृष्टि नहीं हटती, इससे सम्यग्दर्शन धर्म बना रहता है । - - ( 22 ) यह अपूर्व बात है, जिस प्रकार व्यापार-धन्धे में ब्याज आदि गिनने में ध्यान रखता है, उसी प्रकार यहाँ आत्मा की रुचि करके बराबर ध्यान रखना चाहिए, अन्तर मे मिलान करना चाहिए। यहाँ मङ्गलाचरण में अपूर्व बात आयी है । यह कोई अपूर्व बात है, समझने जैसी है इस प्रकार रुचि लाकर साठ मिनट तक बराबर Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai. -
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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