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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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जानकर, अरहन्त का लक्ष्य छोड़कर, आत्मा की ओर उन्मुख हुआ; अब अन्तर में द्रव्य-गुण-पर्याय के विकल्प को छोड़कर, अपने एक चेतनस्वभाव को लक्ष्य में लेकर एकाग्र होने से आत्मा में मोहक्षय के लिये कैसी क्रिया होती है - वह कहते हैं । गुणपर्याय को द्रव्य में ही अभेद करके अन्तरोन्मुख हुआ, वहाँ उत्तरोत्तरप्रतिक्षण कर्ता-कर्म-क्रिया के भेद का क्षय होता जाता है और जीव निष्क्रिय चिन्मात्रभाव को प्राप्त होता है। अन्तरोन्मुख हुआ, वहाँ 'मैं करता हूँ और आत्मा की श्रद्धा करने की ओर ढ़लता हूँ'- ऐसा भेद का विकल्प नहीं रहता। 'मैं कर्ता हूँ और पर्याय कर्म है, मैं पुण्य-पाप का कर्ता नहीं हूँ और स्वभाव-पर्याय का कर्ता हूँ, पर्याय को अन्तर में एकाग्र करने की क्रिया करता हूँ, मेरी पर्याय अन्तर में एकाग्र होती जा रही है'- इस प्रकार के कर्ताकर्म और क्रिया के विभागों के विकल्प नष्ट हो जाते हैं।
विकल्परूप क्रिया न रहने से वह जीव निष्क्रिय चिन्मात्रभाव को प्राप्त होता है। ऐसी जो पर्याय, द्रव्योन्मुख होकर एकाग्र हुई, उस पर्याय को मैंने उन्मुख किया'- ऐसा कर्ता-कर्म के विभाग का विकल्प अनुभव के समय नहीं होता। जब अकेले चिन्मात्रभाव आत्मा का अनुभव रह जाता है, उसी क्षण मोह निराश्रय होता हुआ, नाश को प्राप्त होता है - यही अपूर्व सम्यग्दर्शन है।
जब सम्यग्दर्शन हो, उस समय — 'मैं पर्याय को अन्तरोन्मुख करता हूँ'-ऐसा विकल्प नहीं होता। मैं पर्याय को द्रव्योन्मुख करूँ अथवा तो इस वर्तमान अंश को त्रिकाल में अभेद करूँ' - ऐसा विकल्प रहे तो पर्यायदृष्टि का राग होता है और अभेद द्रव्य प्रतीति में नहीं आता। अभेद स्वभाव की ओर ढ़लने से विकल्प
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