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________________ www.vitragvani.com 214] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 आत्मा की ओर उन्मुख होता है। द्रव्य-गुण और पर्याय से परिपूर्ण मेरा स्वरूप है; राग-द्वेष मेरा स्वरूप नही है - ऐसा निश्चित करके, फिर पर्याय का लक्ष्य छोड़कर और गुण-भेद का भी लक्ष्य छोड़कर अभेद आत्मा को लक्ष्य में लेता है,उस समय अकेले चिन्मात्रस्वभाव का अनुभव होता है, उसी समय सम्यग्दर्शन होता है और मोह का क्षय हो जाता है। (20) आत्मा अनन्त गुणों का पिण्ड है, वह हार है; उसका जो चैतन्यगुण, वह सफेदी है और उसकी प्रत्येक समय की चैतन्य पर्यायें, वे मोती हैं। आत्मा का अनुभव करने के लिए प्रथम तो उन द्रव्य-गुण-पर्याय का पृथक्-पृथक् विचार करता है। पर्याय में जो राग-द्वेष होता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है, क्योंकि अरहन्त की पर्याय में राग-द्वेष नहीं हैं। रागरहित केवलज्ञानपर्याय मेरा स्वरूप है। वह पर्याय कहाँ से आती है ? त्रिकाली चैतन्यगुण में से वह प्रगट होती है और ऐसे ज्ञान, दर्शन, सुख, अस्तित्व आदि अनन्त गुणों का एकरूप पिण्ड, वह आत्मद्रव्य है - ऐसा जानने के पश्चात्, भेद का लक्ष्य छोड़कर, अभेद आत्मा को लक्ष्य में लेकर, एक आत्मा को ही जानने से विकल्परहित निर्विकल्प आनन्द का अनुभव होता है। वही निर्विकल्प आत्मसमाधि है, वही आत्म-साक्षात्कार है, वही स्वानुभव है, वही भगवान के दर्शन हैं, वही सम्यग्दर्शन है। जो कहो वह यही धर्म है। जिस प्रकार डोरा पिरोया हुई सुई खोती नहीं है; उसी प्रकार यदि आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानरूपी डोरा पिरो ले तो वह संसार में परिभ्रमण न करे। (21) प्रथम, अरहन्त जैने अपने द्रव्य-गुण-पर्याय को Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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