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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[7 उसे कौन रोक सकता है ? यह कितने आश्चर्य की बात है कि परपरिणाम को सुगम और निजपरिणाम को विषम बताता है। स्वयं देखता है-जानता है, तथापि यह कहते हुए लज्जा नहीं आती कि देखा नहीं जाता, जाना नहीं जाता..... जिसका जयगान भव्य जीव गाते हैं, जिसकी अपार महिमा को जानने से महा भवभ्रमण दूर होता है, ऐसा यह समयसार (शुद्ध आत्मा) अविकार जान लेना चाहिए।
यह जीव अनादि काल से अज्ञान के कारण परद्रव्य को अपना करने के लिये प्रयत्न कर रहा है और शरीरादि को अपना बनाकर रखना चाहता है, किन्तु परद्रव्य का परिणमन, जीव के आधीन नहीं है; इसलिए अनादि से जीव के परिश्रम के फल में अज्ञान हुआ, किन्तु एक परमाणु भी जीव का नहीं हुआ। अनादि काल से देहदृष्टिपूर्वक शरीर को अपना मान रखा है; किन्तु अभी तक एक भी रजकण न तो जीव का हुआ है और न होनेवाला है; दोनों द्रव्य त्रिकाल भिन्न हैं। जीव यदि अपने स्वरूप को यथार्थ समझना चाहे तो वह पुरुषार्थ के द्वारा अल्प काल में समझ सकता है। जीव अपने स्वरूप को जब समझना चाहे, तब समझ सकता है। स्वरूप के समझने में अनन्त काल नहीं लगता; इसलिए यथार्थ समझ सुलभ है। यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की रुचि के अभाव में ही जीव अनादि काल से अपने स्वरूप को नहीं समझ पाया; इसलिए आत्मास्वरूप समझने की रुचि करो और ज्ञान प्राप्त करो। "धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है।"
दसण मूलो धम्मो
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