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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[211 जिस प्रकार हार खरीदनेवाला पहले तो हार, उसकी सफेदी और उसके मोती-इन तीनों को जानता है, किन्तु जब हार पहनता है, उस समय मोती और सफेदी को लक्ष्य नहीं होता; अकेले हार को ही लक्ष्य में लेता है। यहाँ हार को द्रव्य की उपमा है, सफेदी को गुण की उपमा है और मोती को पर्याय की उपमा है। मोह का क्षय करनेवाला जीव, प्रथम तो अरहन्त जैसे अपने आत्मा के द्रव्यगुण-पर्याय को जानता है, परन्तु जहाँ तक इन तीनों पर लक्ष्य रहे, वहाँ तक राग रहता है और अभेद आत्मा का अनुभव नहीं होता; इसलिए द्रव्य-गुण -पर्याय को जान लेने के पश्चात्, अब गुण
और पर्यायों को द्रव्य में ही समेटकर अभेद आत्मा का अनुभव करता है, उसकी बात करते हैं। यहाँ पहले पर्याय को द्रव्य में लीन करने की और फिर गुण को द्रव्य में लीन करने की बात कही है। कहने में तो क्रम से ही कही जाती है, परन्तु वास्तव में गुण और पर्याय दोनों का लक्ष्य एक ही साथ छूट जाता है। जहाँ अभेद द्रव्य को लक्ष्य में लिया, वहाँ गुण और पर्याय-दोनों का लक्ष्य एक ही साथ दूर हो गया और अकेले आत्मा का अनुभव रहा। जिस प्रकार मोती का लक्ष्य छोड़कर हार को लक्ष्य में लिया, वहाँ अकेला हार ही लक्ष्य में रहा, सफेदी का भी लक्ष्य नहीं रहा; उसी प्रकार जहाँ पर्याय का लक्ष्य छोड़कर द्रव्य को लक्ष्य में लेकर एकाग्र हुआ, वहाँ गुण का लक्ष्य भी साथ ही छूट गया। गुण-पर्याय दोनों गौण हो गये और एक द्रव्य का अनुभव रहा। इस प्रकार द्रव्य का लक्ष्य करके आत्मा का अनुभव करने का नाम सम्यग्दर्शन है।
(16) सम्यग्दर्शन के बिना धर्म नहीं होता, इसलिए यहाँ प्रथम ही सम्यग्दर्शन की बात बतलायी है। पुण्य-पाप हों, वे
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