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________________ www.vitragvani.com 210] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 लिया है, वह जीव, स्वभाव के आँगन में आया है, परन्तु आँगन में आ जाने के पश्चात् अब, स्वभाव का अनुभव करने में अनन्त अपूर्व पुरुषार्थ है। आँगन में आकर यदि विकल्प में ही रुका रहे तो अनुभव नहीं होगा। जैसे महान् सम्राट बादशाह के महल के आँगन तक तो आ गया, लेकिन अन्दर प्रविष्ट होने के लिए हिम्मत होना चाहिए; उसी प्रकार इस चैतन्य भगवान के आँगन में आने के पश्चात् –अर्थात् मन द्वारा आत्मस्वभाव को जाने लेने के पश्चात्चैतन्यस्वभाव के भीतर ढलकर अनुभव करने के लिए अनन्त पुरुषार्थ हो, वही चैतन्य में ढ़लकर सम्यग्दर्शन प्रगट करता है और दूसरे जो जीव शुभ विकल्प में रुक जाते हैं, वे पुण्य में अटक जाते हैं, उन्हें धर्म नहीं होता, परन्तु यहाँ तो आँगन में रुकने की बात ही नहीं है, जो जीव स्वभाव के आँगन में आया, वह स्वभावोन्मुख होकर अनुभव करेगा ही - ऐसी अप्रतिहतपने की ही बात ली है। आँगन में आकर लौट जाए- ऐसी बात ही यहाँ नहीं ली है। (14) प्रथम, मन द्वारा अरहन्त जैसे अपने आत्मस्वभाव को जान लेने के पश्चात्, अब अन्तरस्वभावोन्मुख होकर सम्यग्दर्शन प्रगट करना है, उसकी बात बतलाते हैं। अब अन्तर में ढलने की बात है। बाह्य में अरहन्त भगवान का लक्ष्य तो छोड़ दिया और अपने में भी द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद का लक्ष्य छोड़कर, अन्तर के अभेद स्वभाव में जाता है। पहले अरहन्त जैसे अपने द्रव्यगुण-पर्याय को जाना - वह भूमिका हुई; अब उस भूमिका से निकलकर अन्तर में अनुभव करने की बात है। इसलिए बराबर ध्यान रखकर समझना चाहिए। (15) यहाँ मोतियों के हार का दृष्टान्त देकर समझाते हैं। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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