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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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अनुभव का अभ्यास करे तो उसे धर्मसन्मुख कहा जाता है, वह जीव, धर्म के आँगन में आ गया है।
(11)अपना आत्मा, अरहन्त जैसा है – ऐसा जहाँ मन से जाना, वहीं पर के ओर की एकाग्रता से या पुण्य से आत्मा को लाभ होता है, यह मान्यता दूर हो गयी है। शरीर-मन-वाणी की क्रिया तो आत्मा से भिन्न है और राग-द्वेष के भाव होते हैं, वे अरहन्त भगवान की अवस्था में नहीं हैं; इसलिए वास्तव में वे राग-द्वेष के भाव इस आत्मा की अवस्था नहीं हैं। किसी भी पुण्य-पाप के भाव से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र या केवलज्ञान नहीं होता। प्रथम मन द्वारा त्रिकाली आत्मा को जाना, वहाँ इतना तो निश्चित हो गया। प्रथम मन से तो पूर्ण आत्मस्वभाव को जान लिया, 'ऐसे आत्मा की प्रतीति और अनुभव करने से ही सम्यग्दर्शन होता है तथा उसमें एकाग्रता होने से ही चारित्र और केवलज्ञान होता है'ऐसा निश्चित कर लिया, इसलिए अब उस स्वभाव की ओर उन्मुख होना ही रहा। वह जीव स्वभाव की ओर उन्मुख होकर मोह का क्षय किस प्रकार करता है - यह बात आचार्य भगवान हार का दृष्टान्त देकर बहुत ही स्पष्ट समझायेंगे।
(12) स्वभावोन्मुखता करके मोह का क्षय करने की और सम्यग्दर्शन प्रगट करने की यह रीति है। सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिये यह अलौकिक अधिकार है। बहुत ही उच्च और अपूर्व अधिकार आया है। यह अधिकार समझकर स्मरण रखने योग्य और आत्मा के अन्दर उतारने जैसा है। अपने अन्तरस्वभाव में एकाग्रता से ही सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र प्रगट होता है।
(13) जिसने अरहन्त जैसे अपने आत्मा को मन द्वारा जान
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