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________________ www.vitragvani.com 212] [सम्यग्दर्शन : भाग-1 निषेध करने के लिये जाननेयोग्य हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन की रीति में पुण्य या पाप नहीं हैं। यहाँ दृष्टान्त में झूलते हुए हार को लिया है; इसी प्रकार सिद्धान्त में परिणमित होते हुए द्रव्य को बतलाना है। द्रव्य का परिणमन होकर पर्यायें आती हैं, उन पर्यायों को त्रिकाली परिणमित होने हुए द्रव्य में ही लीन करके और गुणभेद का विचार छोड़कर द्रव्य में ढलता है, तभी सम्यग्दर्शन होता है। पर्यायों को द्रव्य में अभेद किया और ज्ञान, वह आत्मा'- ऐसे गुण-गुणी के भेद की वासना का लोप किया, वहाँ विकल्प नहीं रहा; इसलिए जिस प्रकार सफेदी को पृथक् लक्ष्य में न लेकर, उसका हार में ही समावेश करके हार को लक्ष्य में लेता है; उसी प्रकार ज्ञान और आत्मा - ऐसे दो भेदों में लक्ष्य में न लेकर, एक आत्मद्रव्य को ही लक्ष्य में लेता है, चैतन्य को चेतन में ही स्थापित करके एकाग्र हुआ कि वहीं सम्यग्दर्शन होता है और मोह नाश को प्राप्त होता है। (17) देखो भाई ! यही आत्मा के हित की बात है। यह समझ पूर्व में अनन्त काल में एक क्षणमात्र भी नहीं की है। एक क्षणमात्र भी ऐसी प्रतीति करे , उसे भव नहीं रहता। इसे समझे बिना लाखों -करोड़ों रुपये इकट्ठे हो जाएं तो उससे आत्मा को कुछ भी लाभ नहीं है। आत्मा का लक्ष्य किए बिना, उसके अनुभव के अमूल्य क्षण का लाभ नहीं मिलता। जिसने ऐसे आत्मा का निर्णय कर लिया, उसे आहार-विहारादि संयोग हों और पुण्य-पाप के परिणाम भी होते हों, तथापि आत्मा का लक्ष्य नहीं छूटता; आत्मा का जो निर्णय किया है, वह किसी भी प्रसङ्ग पर नहीं बदलता; इसलिए उसे प्रतिक्षण धर्म होता रहता है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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