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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 उसी प्रकार आत्मा में केवलज्ञान प्रगट होने की शक्ति है, उसमें से केवलज्ञान का विकास होता है। शरीर-मन-वाणी या देव-गुरुशास्त्र तो (मोरनी की भाँति) परवस्तु हैं, उनमें से केवलज्ञान प्रगट होने की शक्ति नहीं आयी है और पुण्य-पाप के भाव ऊपरवाले छिलके के समान हैं, उनमें केवलज्ञान होने की शक्ति नहीं है।
आत्मा का स्वभाव अरहन्त जैसा है, वह शरीर-मन-वाणी से तथा पुण्य-पाप से रहित है, उस स्वभाव में केवलज्ञान प्रगट होने की शक्ति है। जिस प्रकार अण्डे में बड़े-बड़े विषैले सोँ को निगल जानेवाला मोर होने की शक्ति है; उसी प्रकार मिथ्यात्वादि का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त करे, वैसी शक्ति प्रतयेक आत्मा में है। चैतन द्रव्य, चैतन्यगुण और ज्ञाता-दृष्टारूप पर्याय का पिण्ड आत्मा है, उसका स्वभाव, मिथ्यात्व को बनाये रखने का नहीं; परन्तु उसे निगल जाने का नष्ट करने का है। ऐसे स्वभाव को पहिचाने, उसके मिथ्यात्व का क्षय हुए बिना न रहे, परन्तु जैसे – अण्डे में मोरे कैसे होगा? – ऐसी शङ्का करके उसे हिलाये-डुलाये तो उसका रस सूख जाता है और मोर नहीं होता; उसी प्रकार आत्मा के स्वभाव -सामर्थ्य का विश्वास न करें और 'इस समय आत्मा भगवान के समान कैसे होगा?'-ऐसी स्वभाव में शङ्का करे तो उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता और न मोह दूर होता है। सम्यग्दर्शन के बिना कभी धर्म नहीं होता। ___(9) अब मोर के अण्डे में मोर होने का स्वभाव है, वह स्वभाव किस प्रकार ज्ञाता होता है? वह स्वभाव किन्हीं इन्द्रियों के द्वारा ज्ञात नहीं होता। अण्डे को हिलाकर सुने तो कान द्वारा वह स्वभाव ज्ञात नहीं होगा, नाक से उसके स्वभाव की गन्ध नहीं
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