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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[207 आयेगी और न जीभ से अण्डे का स्वभाव ज्ञात होगा; इस प्रकार अण्डे में मोर होने की शक्ति है, वह किन्हीं इन्द्रियों द्वारा ज्ञात नहीं होती, परन्तु ज्ञान से ही ज्ञात होती है। स्वभाव को जानने का ज्ञान निरपेक्ष है, किन्हीं इन्द्रियादि की उसे अपेक्षा नहीं है। किसी भी वस्तु का स्वभाव अतीन्द्रियज्ञान से ही ज्ञात होता है; उसी प्रकार आत्मा में केवलज्ञान होने का स्वभाव विद्यमान है, वह स्वभाव कान से, आँख से, नाक से, जीभ से या स्पर्श से ज्ञात नहीं होता; मन द्वारा या राग द्वारा भी वास्तव में वह स्वभाव ज्ञात नहीं होता; इन्द्रियों और मन का अवलम्बन छोड़कर स्वभावोन्मुख हो, उस अतीन्द्रियज्ञान से ही आत्मस्वभाव ज्ञात होता है। यहाँ 'मन द्वारा आत्मा को जान लेता है'- ऐसा कहा है, वहाँ तक अभी सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है, अभी तो रागवाला ज्ञान है। मन का अवलम्बन छोड़कर, अभेदस्वभाव को सीधे ज्ञान से लक्ष्य में ले, तब सम्यग्दर्शन होता है। सम्यग्दर्शन कैसे हो – उसकी यह रीति है।
(10) जिस प्रकार दियासलाई के सिरे में अग्नि प्रगट होने का स्वभाव है - वह आँख, कान आदि किन्हीं इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होता है। प्रथम, दियासिलाई के सिरे में अग्नि प्रगट होने की शक्ति है – इस प्रकार उसके स्वभाव का विश्वास करके, फिर उसे घिसने से अग्नि प्रगट होती है; उसी प्रकार आत्मा में केवलज्ञान प्रगट होने का स्वभाव है, वह स्वभाव किन्हीं इन्द्रियों द्वारा दिखायी नहीं देता, परन्तु अतीन्द्रियज्ञान से ही ज्ञात होता है। प्रथम, परिपूर्ण स्वभाव का विश्वास करके, पश्चात् उसमें एकतारूपी घिसाई (घिसने की क्रिया) करने से केवलज्ञानज्योति प्रगट होती है। शरीर-मन-वाणी तो दियासलाई की पेटी के समान हैं। जिस
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