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________________ www.vitragvani.com [205 सम्यग्दर्शन : भाग-1] को जाना, वह जीव, आत्मा के सम्यग्दर्शन के आँगन में आया है। किसी बाह्य पदार्थ से आत्मा को पहिचानना, वह अज्ञान है। आत्मा लखपति या करोड़पति नहीं है, लक्ष्मी तो जड़ है, उसका स्वामी आत्मा नहीं है; आत्मा तो अनन्तपति है, अपने अनन्त गुणों का स्वामी है। अरहन्त भगवान को तेरहवें गुणस्थान में जो केवलज्ञानादिदशा प्रगट हुई- वह सब मेरा स्वरूप है और भगवान के राग-द्वेष तथा अपूर्ण ज्ञान दूर हो गये, वह आत्मा का स्वरूप नहीं था, इसी से दूर हो गये हैं; इसलिए वे रागादि मेरे स्वरूप में नहीं है। मेरे स्वरूप में राग-द्वेष आस्रव नहीं हैं, अपूर्णता नहीं है। आत्मा की पूर्ण निर्मल रागरहित परिणति ही मेरी पर्याय का स्वरूप है - इतना समझा, तब जीव सम्यग्दर्शन के लिए पात्र हुआ है, इतना समझनेवाले का मोहभाव मन्द हो गया है और कुदेवकुगुरु-कुशास्त्र की मान्यता तो छूट ही गई है। __(8) तीन लोक के नाथ श्री तीर्थङ्कर भगवान कहते हैं कि मेरा और तेरा आत्मा एक ही जाति का है, दोनों की एक ही जाति है। जैसा मेरा स्वभाव है, वैसा ही तेरा स्वभाव है। केवलज्ञानदशा प्रगट हुई, वह बाहर से नहीं प्रगटी है, परन्तु आत्मा में शक्ति है, उसी में से प्रगट हुई है। तेरे आत्मा में भी वैसी ही परिपूर्ण शक्ति है। अपने आत्मा की शक्ति अरहन्त जैसी है, उसे जो जीव पहचान ले, उसका मोह नष्ट हुए बिना नहीं रहता। जैसे मोर के छोटे से अण्डे में साढ़े तीन हाथ का मोर होने का स्वभाव भरा है; इसलिए उसमें से मोर होता है। मोर होने की शक्ति मोरनी में से नहीं आयी और अण्डे के ऊपरवाले छिलके में से भी नहीं आयी है, परन्तु अण्डे के भीतर भरे हुए रस में वह शक्ति है; Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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