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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 1
अरहन्त के त्रिकाल द्रव्य - गुण हैं, वैसे ही द्रव्य - गुण मुझमें हैं । अरहन्त की पर्याय में राग-द्वेष नहीं हैं और मेरी पर्याय में राग- - द्वेष होते हैं, वह मेर स्वरूप नहीं है इस प्रकार जिसने अपने आत्मा को राग-द्वेष रहित परिपूर्ण स्वभाववाला निश्चित किया, वह जीव, सम्यग्दर्शन प्रगट होने के आँगन में खड़ा है। अभी तो उससे मन के अवलम्बन द्वारा स्वभाव का निर्णय किया है, इससे आँगन कहा है। मन का अवलम्बन छोड़कर सीधा स्वभाव का अनुभव करेगा, वह साक्षात् सम्यग्दर्शन है। भले ही पहले मन का अवलम्बन है परन्तु निर्णय में तो ' अरहन्त जैसा मेरा स्वभाव है ' - ऐसा निश्चित किया है। ‘मैं रागी-द्वेषी हूँ, मैं अपूर्ण हूँ, मैं शरीर की क्रिया करता हूँ' – ऐसा निश्चित नहीं किया है, इसलिए उसे सम्यग्दर्शन का आँगन कहा है।
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( 6 ) यह गाथा बहुत उच्च है, इस एक ही गाथा में हजारों शास्त्रों का सार आ जाता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर केवलज्ञान प्राप्त करे – ऐसी इस गाथा में बात है। श्रेणिक राजा इस समय नरक में हैं, उन्हें क्षायिक सम्यग्दर्शन है। इस गाथा के कथानुसार अरहन्त जैसे अपने आत्मा का भान है । भरत चक्रवती को छह खण्ड का राज्य था; तथापि क्षायिक सम्यग्दर्शन था, अरहन्त जैसे अपने आत्मस्वभाव का भान एक क्षण भी च्युत नहीं होता था । ऐसा सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट को - उसकी यह बात है ।
( 7 ) अरहन्त जैसे अपने आत्मा को पहले तो जीव, मन द्वारा जान लेता है। मैं चेतन ज्ञाता-दृष्टा 'और यह जो जानने की पर्याय होती है, वह मैं हूँ; रागादि होते हैं, वह मेरे ज्ञान का स्वरूप नहीं है— इस प्रकार स्वसन्मुख होकर मन द्वारा जिसने अपने आत्मा
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