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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [203 रहने से वह अवश्य ही नष्ट हो जाता है और जीव को सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, वह अपूर्व है। सम्यग्दर्शन के बिना तीन काल में धर्म नहीं होता। (5) जैसा अरहन्त भगवान का आत्मा है, वैसा ही यह आत्मा है। उसमें जो चेतन है, वह द्रव्य है। चेतन अर्थात् आत्मा है, वह द्रव्य है। चैतन्य का उसका गुण है। चैतन्य, अर्थात् ज्ञानदर्शन, वह आत्मा का गुण है और उस चैतन्य की ग्रन्थियाँ, अर्थात् ज्ञान-दर्शन की अवस्थाएँ -ज्ञान-दर्शन का परिणमन-वह आत्मा की पर्यायें हैं। इसके अतिरिक्त कोई रागादि भाव या शरीर-मनवाणी की क्रियाएँ, वे वास्तव में चैतन्य का परिणमन नहीं हैं, इसलिए वे आत्मा की पर्यायें नहीं हैं, आत्मा का स्वरूप नहीं है। जिस अज्ञानी को, अरहन्त जैसे अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की खबर नहीं है, वह रागादि को और शरीरादि की क्रिया को अपना मानता है। 'मैं तो चैतन्य द्रव्य हूँ, मुझमें चैतन्य गुण है और मुझमें प्रतिक्षण चैतन्य की अवस्था होती है - वह मेरा स्वरूप है, इसके अतिरिक्त जो रागादिभाव होते हैं, वे मेरा सच्चा स्वरूप नहीं है और जड़ की क्रिया तो मुझमें नहीं है'- इस प्रकार जो अरहन्त जैसे अपने आत्मा को मन से भलीभाँति जान लेता है, वह जीव आत्मस्वभाव के आँगन में आया है। यहाँ जो जीव, स्वभाव के आँगन में आ गया, वह अवश्य ही उसमें प्रवेश करता है – ऐसी ही शैली है। आत्मा के स्वभाव की निर्विकल्प प्रतीति और अनुभव, वह सम्यक्त्व है, वह अपूर्व धर्म है। वह सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिये जीव प्रथम तो अपने आत्मा को मन द्वारा समझ लेता है। कैसा समझता है ? मेरा स्वभाव द्रव्य-गुण-पर्याय से अरहन्त जैसा ही है। जैसे Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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