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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय को पहिचानकर, पश्चात् अभेद आत्मा की अन्तर्दृष्टि करके मिथ्यात्व को दूर करता है और सम्यग्दर्शन प्रगट करता है - यह 80वीं गाथा का संक्षिप्त सार है।
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( 3 ) आज माङ्गलिक प्रसङ्ग है और गाथा भी अलौकिक आयी है । यह गाथा 80वीं है। 80वीं अर्थात् आठ और शून्य । आठ कर्मों का अभाव करके सिद्धदशा कैसे हो - उसकी इसमें बात है ।
( 4 ) अरहन्त भगवान का आत्मा भी पहले अज्ञानदशा में था और संसार में परिभ्रमण करता था, फिर आत्मा का भान करके मोह का क्षय किया और अरहन्तदशा प्रगट हुई। पहले अज्ञानदशा में भी वही आत्मा था और इस समय अरहन्तदशा में भी आत्मा वही है इस प्रकार आत्मा त्रिकाल रहता है, वह द्रव्य है; आत्मा में ज्ञानादि अनन्त गुण एक साथ विद्यमान हैं, वह गुण है; और अरहन्त को अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन अनन्त सुख और वीर्य प्रगट हुए हैं, वह उनकी पर्याय है; उनके राग-द्वेष या अपूर्णता किञ्चित् भी नहीं रहे हैं; इस प्रकार अरहन्त भगवान के द्रव्यगुण- पर्याय को जो जीव जानते हैं, वे अपने आत्मा को भी वैसा ही मानते हैं, क्योंकि यह आत्मा भी अरहन्त की जाति का है । जैसे अरहन्त के आत्मा का स्वभाव है, वैसा ही इस आत्मा का स्वभाव है, निश्चय से उसमें कुछ भी अन्तर नहीं है ।
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इससे पहले अरहन्त के आत्मा को जानने से अरहन्त समान अपने आत्मा को भी जीव मन द्वारा - विकल्प से जान लेता है और फिर अन्तरोन्मुख होकर गुण-पर्यायों से अभेदरूप एक आत्मस्वभाव का अनुभव करता है, तब द्रव्य - पर्याय की एकता होने से वह जीव चिन्मात्रभाव को प्राप्त करता है, उस समय मोह का कोई आश्रय न
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