________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[189
और शरीर की कोई क्रिया अथवा एक विकल्प भी मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उसका कर्ता नहीं हूँ; इस प्रकार की प्रतीति के द्वारा जिसने मिथ्यात्व का नाश करके सम्यग्दर्शन प्रगट कर लिया है, वह जीव लड़ाई में हो अथवा विषय-सेवन कर रहा हो, तथापि उस समय उसके संसार की वृद्धि नहीं होती और 41 प्रकृतियों के बन्ध का अभाव ही है। इस जगत् में मिथ्यात्वरूपी विपरीत मान्यता के समान दूसरा कोई पाप नहीं है।
आत्मा का भान करके से अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। इस सम्यग्दर्शन से युक्त जीव, लड़ाई में होने पर भी अल्प पाप का बन्ध करता है और वह पाप उसके संसार की वृद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि उसके मिथ्यात्व का अनन्त पाप दूर हो गया है और आत्मा के अभान में मिथ्यादृष्टि जीव, पुण्यादि की क्रिया को अपना स्वरूप मानता है, तब वह भले ही परजीव का यतन कर रहा हो, तथापि उस समय उसे लड़ाई लड़ते हुए और विषय-भोग करते हुए सम्यग्दृष्टि जीव की अपेक्षा अनन्तगुणा पाप मिथ्यात्व का है। मिथ्यात्व का ऐसा महान पाप है । सम्यग्दृष्टि जीव अल्प काल में ही मोक्षदशा को प्राप्त कर लेगा - ऐसा महान धर्म सम्यग्दर्शन में है।
जगत् के जीव, सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के स्वरूप को ही नहीं समझे हैं। वे पाप का माप बाहर के संयोगों से निकालते हैं, किन्तु वास्तविक पाप - त्रिकाल महापाप - तो एक समय के विपरीत अभिप्राय में है। उस मिथ्यात्व का पाप जगत् के ध्यान में ही आता । अपूर्व आत्मप्रतीति के प्रगट होने पर, अनन्त संसार का अभाव हो जाता है तथा अभिप्राय में सर्व पाप दूर हो जाते हैं । यह सम्यग्दर्शन क्या वस्तु है, इसे जगत् के जीवों ने सुना तक नहीं है ।
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.