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________________ www.vitragvani.com 188] [ सम्यग्दर्शन : भाग-1 दूसरे के प्रति कषाय करने के लिए यह नहीं कहा गया है । हाँ ! यह सच है कि यदि दूसरों में मिथ्यात्वादिक दोष हों तो उनका आदर-विनय न किया जाए, किन्तु उन पर द्वेष करने को भी नहीं कहा है । यदि अपने में मिथ्यात्व हो तो उसका नाश करने के लिये ही यहाँ पर मिथ्यात्व का स्वरूप बताया गया है, क्योंकि अनन्त जन्म-मरण का मूलकारण मिथ्यात्व ही है । क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा हिंसा, झूठ, चोरी इत्यादि कोई भी अनन्त संसार का कारण नहीं है; इसलिए वास्तव में वे महापाप नहीं है; किन्तु विपरीत मान्यता ही अनन्त अवतारों के प्रगट होने की जड़ है, इसलिए वही महापाप है, उसी में समस्त पाप समा जाते हैं। जगत में मिथ्यात्व के समान अन्य कोई पाप नहीं है; विपरीत मान्यता में अपने स्वभाव की अनन्त हिंसा है । कुदेवादि को मानने में तो गृहीतमिथ्यात्व का अत्यन्त स्थूल महापाप है। कोई लड़ाई में करोड़ों मनुष्यों के संहार करने के लिये खड़ा हो, उसके पाप की अपेक्षा एक क्षण के मिथ्यात्व-सेवन का पाप अनन्तगुणा अधिक है । सम्यक्त्वी लड़ाई में खड़ा हो, तथापि उसके मिथ्यात्व का सेवन नहीं है; इसलिए उस समय भी उसके अनन्त संसार के कारणरूप बन्धन का अभाव ही है । सम्यग्दर्शन के होते ही 41 प्रकार के कर्मों का तो बन्ध होता ही नहीं है । मिथ्यात्व का सेवन करनेवाला महापापी है । जो मिथ्यात्व का सेवन करता है और शरीरादि की क्रिया को अपने आधीन मानता है, वह जीव, त्यागी होकर भी यदि कोमल पीछी से परजीव का यतन कर रहा है तो भी उस समय भी अनन्त संसार का बन्ध ही होता है और उसके समस्त प्रकृतियाँ बँधती हैं Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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