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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 1
कहो, अनुभव कहो या साक्षात्कार कहो - जो कहो वह यह एक आत्मा ही है। अधिक क्या कहा जाए, जो कुछ है, वह यह आत्मा ही है। उसे ही भिन्न-भिन्न नाम से कहा जाता है । केवलीपद, सिद्धपद अथवा साधुपद - यह सब एक आत्मा में ही समाहित होते हैं। समाधिमरण, आराधना, मोक्षमार्ग इत्यादि भी शुद्ध आत्मा में ही समाहित होते हैं - ऐसे आत्मस्वरूप की समझ ही सम्यग्दर्शन है और सम्यग्दर्शन ही समस्त धर्मों का मूल है ।
( —समयसारजी गाथा, 144 के प्रवचन से )
सम्यग्दर्शन की महानता
यह सम्यग्दर्शन महा रत्न है; सर्वलोक के एक भूषणरूप है अर्थात् सम्यग्दर्शन सर्वलोक में अत्यन्त शोभायमान है और वही मोक्षपर्यन्त सुख देने में समर्थ है। - ज्ञानार्णव अ० 6 गा० 53
सम्यग्दर्शन से कर्म का क्षय
जो जीव, मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व को ध्याता है, वही सम्यग्दृष्टि होता है, और सम्यक्त्वरूपी परिणमन से वह जीव इन दुष्ट अष्ट- कर्मों का क्षय करता है ।
- मोक्षपाहुड़ - 87
सर्व धर्म का मूल है
ज्ञान और चारित्र का बीज सम्यग्दर्शन ही है, यम और प्रशमभावों का जीवन सम्यग्दर्शन ही है, और तप तथा स्वाध्याय का आधार भी सम्यग्दर्शन ही है । इस प्रकार आचार्यों ने कहा है
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- ज्ञानार्णव अ० 6 गा० 54
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