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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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करने योग्य है, हित का साधन लेशमात्र भी बाहर में नहीं है। मोक्षार्थी को सत्समागम में एक आत्मा का ही निश्चय करना चाहिए। वास्तविक तत्त्व की श्रद्धा किये बिना अन्तरस्वरूप का वेदन नहीं होता। पहले तो अन्तर से सत् का स्वीकार हुए बिना सत्स्वरूप का ज्ञान नहीं होता और सत्स्वरूप के ज्ञान बिना भव-बन्धन की बेड़ी नहीं टूटती और भव-बन्धन के अन्त बिना जीवन किस काम का? भव के अन्त की श्रद्धा बिना कदाचित् पुण्य करे तो उसका फल राजपद-देवपद हो, परन्तु उसमें आत्मा को क्या है ? आत्मा के भान बिना तो वह पुण्य और देवपद इत्यादि सब धूलधानी ही हैं; उनमें आत्म की शान्ति का अंश भी नहीं है। इसलिए पहले श्रुतज्ञान के द्वारा ज्ञानस्वभाव का दृढ़ निश्चय करने पर प्रतीति में भव की शङ्का नहीं रहती और जितनी ज्ञान की दृढ़ता होती है, उतनी शान्ति बढ़ती जाती है।
भाई, प्रभु! तू कैसा है, तेरी प्रभुता की महिमा कैसी है, इसे तूने नहीं जाना है। तू अपनी प्रभुता के भान बिना बाहर में जिस-तिस के गीत गाया करता है, तो उसमें तुझे अपनी प्रभुता का लाभ नहीं है। तूने पर के गीत तो गाये परन्तु अपने गीत नहीं गाये। भगवान की प्रतिमा के सामने कहता है कि 'हे नाथ, हे भगवान! आप अनन्त ज्ञान के स्वामी हो।' वहाँ सामने से वैसी ही प्रतिध्वनि आती है कि 'हे नाथ, हे भगवान! आप अनन्त ज्ञान के स्वामी हो...' तात्पर्य यह है कि जैसा परमात्मा का स्वरूप है, वैसा ही तेरा स्वरूप है, उसे तू पहचान।
शुद्धात्मस्वरूप का वेदन कहो, ज्ञान कहो, श्रद्धा कहो, चारित्र
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