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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 1
पहले देव-शास्त्र-गुरु के सेवन से अनेक प्रकार से श्रुतज्ञान जाने और उन सबमें से एक ज्ञानस्वभावी आत्मा को पहचाने, फिर उसका लक्ष्य करके प्रगट अनुभव करने के लिए मति - श्रुतज्ञान की बाहर झुकती हुई पर्यायों को स्वसन्मुख करने पर तत्काल निर्विकल्प निज स्वभावरस आनन्द का अनुभव होता है । परमात्मस्वरूप का दर्शन जिस समय करता है, उसी समय आत्मा स्वयं सम्यग्दर्शनरूप प्रगट होता है । जिसे आत्मा की प्रतीति आ गयी है, उसे बाद में विकल्प आवें, तब भी जो आत्मदर्शन हो गया है, उसका तो भान है; अर्थात्, आत्मानुभव के बाद विकल्प उत्पन्न पर सम्यग्दर्शन चला नहीं जाता । समयग्दर्शन, वह कोई वेष नहीं है परन्तु स्वानुभवरूप परिणमित आत्मा ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ।
सम्यग्दर्शन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का अनुभव करने के बाद भी शुभभाव आते अवश्य हैं परन्तु आत्महित तो ज्ञानस्वभाव का अनुभव करने से ही होता है । जैसे-जैसे ज्ञानस्वभाव में एकाग्रता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे शुभाशुभभाव भी मिटते जाते हैं। बहिर्लक्ष्य से होनेवाला समस्त वेदन दुःखरूप है । अन्दर में आत्मा शान्तरस की मूर्ति है, उसके लक्ष्य से होनेवाला वेदन ही सुख है । सम्यग्दर्शन, वह आत्मा का गुण है और गुण कभी गुणी से पृथक् नहीं होता। एक अखण्ड प्रतिभासमय आत्मा का अनुभव ही सम्यग्दर्शन है।
अन्तिम अनुरोध :
हे भव्य ! यह आत्म-कल्याण का छोटे से छोटा; अर्थात्, जो सबसे हो सके - ऐसा उपाय है। दूसरे सब उपाय छोड़कर यही
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