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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [167 वही समयसार और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है। यहाँ तो सम्यग्दर्शन और आत्मा दोनों अभेद लिये हैं, आत्मा स्वयं सम्यग्दर्शनस्वरूप है। बारम्बार ज्ञान में एकाग्रता का अभ्यास करना चाहिए : सर्व प्रथम, आत्मा का निर्णय करने के बाद अनुभव करने के लिए कहा है। सर्व प्रथम, 'मैं निश्चय ज्ञानस्वरूप हूँ, अन्य कोई रागादि मेरा स्वरूप नहीं है', ऐसा निर्णय करने के लिए सत्समागम में सच्चे श्रुतज्ञान को पहचानकर उसका परिचय करना चाहिए। सत्श्रुत के परिचय से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करने के बाद मति-श्रुतज्ञान को उस ज्ञानस्वभाव के सन्मुख करने का प्रयत्न करना चाहिए, निर्विकल्प होने का पुरुषार्थ करना चाहिए, यही सम्यक्त्व का मार्ग है। इसमें तो बारम्बार ज्ञान में एकाग्रता का अभ्यास ही करना है, इसमें बाहर में कुछ करना नहीं आया है परन्तु ज्ञान में ही समझ और एकाग्रता का प्रयत्न करना आया है। ज्ञान में अभ्यास करते-करते जहाँ एकाग्र हुआ, वहाँ उसी समय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानरूप यह आत्मा प्रगट होता है, यही जन्म-मरण के अभाव का उपाय है। आत्मा, अकेला ज्ञायकस्वभाव है, उसमें दूसरा कुछ करने का स्वभाव नहीं है। निर्विकल्प अनुभव होने से पूर्व ऐसा निश्चय करना चाहिए; इसके अलावा दूसरा कुछ माने तो उसे व्यवहार से भी आत्मा का निश्चय नहीं है। बाहर में दूसरे लाख उपाय करे, परन्तु ज्ञान नहीं होता, किन्तु ज्ञानस्वभाव की पकड़ से ही ज्ञान होता है। आत्मा की तरफ लक्ष्य और श्रद्धा के बिना सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान हुआ कहाँ से? Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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