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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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किन्तु श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा का निर्णय करना चाहिए। श्रुत के अवलम्बन की धुन लगने पर देव-गुरु-शास्त्र-धर्म और निश्चयव्यवहार इत्यादि समस्त पहलु जानकर एक ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करना चाहिए। इसमें भगवान कैसे हैं ? उनके शास्त्र कैसे हैं और वे क्या कहते हैं ? इन सबका अवलम्बन यह निर्णय कराता है कि तू ज्ञान है; आत्मा ज्ञानस्वरूपी ही है, तू ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं कर सकता है।
इसमें यह बताया गया है कि देव-शास्त्र-गुरु कैसे होते हैं और उन देव-शास्त्र-गुरु को पहचानकर, उनका अवलम्बन लेनेवाला स्वयं क्या समझा होता है ? हे जीव! तू ज्ञानस्वभावी आत्मा है, जानना ही तेरा स्वभाव है, किसी पर का कुछ करना अथवा पुण्य-पाप के भाव करना तेरा स्वरूप नहीं है। यह सब जो बतलाते हों, वे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु हैं और इस प्रकार जो समझता है, वही देव -शास्त्र-गुरु के अवलम्बन से श्रुतज्ञान को समझा है, किन्तु जो राग से धर्म मनवाते हों और शरीराश्रित क्रिया, आत्मा करता है, यह मनवाते हों तथा जो यह कहते हों कि जड़कर्म, आत्मा को परेशान करते हैं, वे सच्चे देव-शास्त्र-गुरु नहीं हो सकते, क्योंकि वे वस्तुस्वरूप जैसा है, वैसा नहीं जानते और उससे विपरीत बतलाते हैं।
जो शरीरादि सर्व पर से भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्मा का स्वरूप बताते हों और यह बताते हों कि पुण्य-पाप का कर्तव्य आत्मा का नहीं है, वही सच्चे शास्त्र हैं, वही सच्चे देव हैं और वही सच्चे गुरु हैं । जो पुण्य से धर्म बतलाते हैं और जो यह बतलाते हैं कि शरीर की क्रिया का कर्ता आत्मा है तथा जो राग से धर्म होना बतलाते हैं,
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