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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 वे सब कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्र हैं क्योंकि वे यथावत् वस्तुस्वरूप के ज्ञाता नहीं हैं और वे विपरीत स्वरूप ही बतलाते हैं। जो वस्तुस्वरूप जैसा है, वैसा न बताये और किञ्चित्मात्र भी विरुद्ध बताये, वह सच्चा देव, सच्चा शास्त्र या सच्चा गुरु नहीं हो सकता। श्रुतज्ञान के अवलम्बन का फल-आत्मानुभव है :___ मैं आत्मा तो ज्ञायक हूँ, पुण्य-पाप की वृत्तियाँ मेरी ज्ञेय हैं, वे मेरे ज्ञान से भिन्न हैं; इस प्रकार पहले विकल्प के द्वारा देव-गुरु - शास्त्र के अवलम्बन से यथार्थ निर्णय करता है। ज्ञानस्वभाव का अनुभव होने से पहले की यह बात है। जिसने स्वभाव के लक्ष्य से श्रुत का अवलम्बन लिया है, वह अल्प काल में ही आत्मानुभव अवश्य करेगा। पहले विकल्प में यह निश्चय किया कि मैं पर से भिन्न हूँ, पुण्य-पाप भी मेरा स्वरूप नहीं है, मेरे शुद्ध स्वभाव के अतिरिक्त देव-गुरु-शास्त्र का भी अवलम्बन परमार्थतः नहीं है। मैं तो स्वाधीन ज्ञानस्वभाववाला हूँ; इस प्रकार जिसने निर्णय किया उसे अनुभव हुए बिना कदापि नहीं रह सकता। यहाँ प्रारम्भ ही ऐसे बलपूर्वक किया है कि पीछे हटने की बात ही नहीं है।
पुण्य-पाप मेरा स्वरूप नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ; इस प्रकार जिसने निर्णयपूर्वक स्वीकार किया है, उसका परिणाम पुण्य-पाप की
ओर से हटकर ज्ञायकस्वभाव की ओर गया है। उसे पुण्य-पाप के प्रति आदर नहीं रहा; इसलिए वह अल्प काल में ही पुण्य-पाप से रहित स्वभाव का निर्णय करके और उसमें स्थिरता करके, वीतराग होकर पूर्ण हो जाएगा। यहाँ पूर्ण की ही बात है। प्रारम्भ और पूर्णता के बीच कोई भेद रखा ही नहीं है। जो प्रारम्भ हुआ है, वह पूर्णता को लक्ष्य में लेकर ही हुआ है। सुनानेवाले और सुननेवाले दोनों
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