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रुचि और लगन : -
यहाँ पर एक ही बात को अदल-बदलकर बारम्बार कहा है; इसलिए रुचिवान् जीव उकताता नहीं है । जिस प्रकार नाटक की रुचिवाला आदमी नाटक में 'वंशमोर' कह कर भी अपनी रुचि की वस्तु को बारम्बार देखता है; उसी प्रकार जिन भव्य जीवों को आत्मा की लगन लग गयी है और जो आत्मा का भला करने के लिए निकले हैं, वे बारम्बार रुचिपूर्वक प्रति समय खाते-पीते, बैठते-बोलते और विचार करते हुए निरन्तर श्रुत का ही अवलम्बन स्वभाव के लक्ष्य से करते हैं; किसी काल अथवा क्षेत्र की मर्यादा नहीं करते। उन्हें श्रुतज्ञान की रुचि और जिज्ञासा ऐसी जम गयी है कि वह कभी भी दूर नहीं होती। अमुक समय तक अवलम्बन करके फिर उसे छोड़ देने की बात नहीं है परन्तु श्रुतज्ञान के अवलम्बन से आत्मा का निर्णय करने को कहा गया है । जिसे सच्चे तत्त्व की रुचि है, वह अन्य समस्त कार्यों की प्रीति को गौण कर देता है। प्रश्न तब क्या सत् की प्रीति होने पर खाना-पीना और धन्धा-व्यापार इत्यादि सब छोड़ देना चाहिए ? क्या श्रुतज्ञान को सुनते ही रहना चाहिए ? उसे सुनकर किया क्या जाए ?
[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
उत्तर - सत् की प्रीति होने पर तत्काल खाना-पीना इत्यादि सब छूट ही जाता हो - ऐसी बात नहीं है, किन्तु उस ओर की रुचि तो अवश्य कम होती ही है। पर में से सुखबुद्धि उड़ जाती है और सर्वत्र एक आत्मा ही आगे होता है; इसलिए निरन्तर आत्मा की ही धगश होती है।
मात्र श्रुतज्ञान को सुनते ही रहना चाहिए - ऐसा नहीं कहा,
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