________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[153 हो गयी है और श्रुतज्ञान में तीव्र रुचि जम गयी है और जो श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करने के लिए तैयार हुआ है, उसे अल्प काल में ही आत्मभान हो जाएगा। जिसके हृदय में संसार सम्बन्धी तीव्र रङ्ग जमा है, उसे परम शान्तस्वभाव की बात को समझने की पात्रता जागृत नहीं हो सकती।
यहाँ जो श्रुत का अवलम्बन शब्द रखा है, वह अवलम्बन तो स्वभाव के लक्ष्य से है, वापस न होने के लक्ष्य से है। समयसारजी में तो अप्रतिहत शैली से बात है। ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करने के लिए जिसने श्रुत का अवलम्बन लिया है, वह आत्मस्वभाव का निर्णय करता ही है; वापस होने की बात ही समयसार में नहीं है।
संसार की रुचि को कम करके, आत्मा का निर्णय करने के लक्ष्य से जो यहाँ तक आया है, उसे श्रुतज्ञान के अवलम्बन से निर्णय अवश्य होगा। निर्णय न हो, यह हो ही नहीं सकता। साहूकार के बही-खाते में दिवाले की बात ही नहीं होती; उसी प्रकार यहाँ दीर्घ संसार की बात ही नहीं है। यहाँ तो एक-दो भव में; अर्थात्, अल्प काल में ही मोक्ष जानेवाले जीवों की बात है। सभी बातों की हाँ-हाँ कहा करे और अपने ज्ञान में एक भी बात का निर्णय न करे - ऐसे 'ध्वजपुच्छल' जीवों की बात यहाँ नहीं है। यहाँ तो सुहागा जैसी स्पष्ट बात है।
जो अनन्त संसार का अन्त लाने के लिए पूर्ण स्वभाव के लक्ष्य से प्रारम्भ करने को निकले हैं - ऐसे जीवों का किया हआ प्रारम्भ वापस नहीं होता, ऐसे लोगों की ही यहाँ बात है। यह तो अप्रतिहत मार्ग है। पूर्णता के लक्ष्य से किया गया प्रारम्भ वापस नहीं होता। पूर्णता के लक्ष्य से पूर्णता होती ही है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.