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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 मैंने अनन्त काल में कभी सुना भी नहीं था - ऐसा होने पर उसके स्वरूप की रुचि जागृत होती है और सत्समागम का रङ्ग लग जाता है; इसलिए उसे कुदेवादि अथवा संसार के प्रति रुचि नहीं होती। यदि वस्तु को पहचाने तो प्रेम जागृत हो और उस ओर पुरुषार्थ झुके।
आत्मा, अनादि से स्वभाव को भूलकर परभावरूपी परदेश में चक्कर लगाता है। स्वरूप से बाहर संसार में परिभ्रमण करतेकरते परम पिता सर्वज्ञ परमात्मा और परम हितकारी श्री परमगुरु मिले और वे सुनाते हैं कि पूर्ण हित कैसे हो सकता है ? वे आत्मा के स्वरूप की पहचान कराते हैं, तब अपने स्वरूप को सुनकर किस धर्मी को उल्लास नहीं आयेगा? आयेगा ही।
आत्मस्वभाव की बात सुनकर जिज्ञासु जीवों को महिमा जागृत होती ही है। अहो! अनन्त काल से यह अपूर्व ज्ञान नहीं हुआ; स्वरूप से बाहर परभाव में परिभ्रमण करके अनन्त काल से व्यर्थ ही दु:ख सहन किये हैं। यदि पहले यह अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया होता तो यह दुःख न होता। इस प्रकार स्वरूप की आकाँक्षा जागृत करे, रुचि उत्पन्न करे और इस महिमा को यथार्थतया रटते हुए स्वरूप का निर्णय करे। इस प्रकार जिसे धर्म करके सुखी होना हो, उसे पहले श्रुतज्ञान का अवलम्बन लेकर आत्मा का निर्णय करना चाहिए।
भगवान की श्रुतज्ञानरूपी डोरी को दृढ़ता से पकड़कर, उसके अवलम्बन से स्वरूप में पहुँचा जा सकता है। श्रुतज्ञान के अवलम्बन का अर्थ है, सच्चे श्रुतज्ञान की रुचि का होना और अन्य कुश्रुतज्ञान में रुचि का न होना। जिसे संसार सम्बन्धी बातों की तीव्र रुचि दूर
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