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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 है कि दूसरे की सेवा करने से धर्म होता है, किन्तु यथार्थ धर्म कैसे होता है ? इसके लिए वह पहले पूर्ण ज्ञानी भगवान और उनके द्वारा कहे गये शास्त्र के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करने के लिए उद्यमी होता है। जगत् तो धर्म की कला को ही नहीं समझ पाया है, यदि धर्म की एक ही कला को सीख ले तो उसे मोक्ष हुए बिना नहीं रहे। जिज्ञासु जीव पहले सुदेवादि का और कुदेवादि का निर्णय करके कुदेवादि को छोड़ता है और उसे सच्चे देव-गुरु की ऐसी लगन लगी है कि उसका यही समझने की ओर लक्ष्य है कि सत्पुरुष क्या कहते हैं ? इसलिए अशुभ से तो वह हट ही गया है। यदि सांसारिक रुचि से नहीं हटे तो वीतरागी श्रुत के अवलम्बन में नहीं टिक सकता। धर्म कहाँ है और वह कैसे होता है ? :
बहुत से जिज्ञासुओं के यही प्रश्न उठता है कि धर्म के लिए पहले क्या करना चाहिए? पर्वत पर चढ़ा जाए, सेवा-पूजा की जाए, गुरु की भक्ति करके उनकी कृपा प्राप्त की जाए, अथवा दान दिया जाए? इसके उत्तर में कहते हैं कि इनमें कहीं भी आत्मा का धर्म नहीं है। धर्म तो अपना स्वभाव है, धर्म पराधीन नहीं है; किसी के अवलम्बन से धर्म नहीं होता, धर्म किसी के देने से नहीं मिलता, किन्तु आत्मा की पहिचान से ही धर्म होता है। जिसे अपना पूर्णानन्द चाहिए, उसे पूर्ण आनन्द का स्वरूप क्या है? वह किसे प्रगट हुआ है ? - यह निश्चय करना चाहिए। जिस आनन्द को मैं चाहता हूँ, उसे पूर्ण अबाधित चाहता हूँ; अर्थात्, कोई आत्मा वैसी पूर्णानन्ददशा को प्राप्त हुए हैं और उन्हें पूर्णानन्ददशा में ज्ञान भी पूर्ण ही है, क्योंकि यदि पूर्ण ज्ञान न हो तो राग-द्वेष का अभाव
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