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[सम्यग्दर्शन : भाग-1
भावना है, वैसा आनन्द अन्य किसी को प्रगट हो चुका है और जिन्हें वैसा आनन्द प्रगट हुआ है, उनके निमित्त से स्वयं वह आनन्द प्रगट करने का यथार्थ मार्ग जाने; इसलिए इसमें सच्चे निमित्तों की पहचान भी आ गयी।
जब तक इतना करता है, तब तक अभी जिज्ञासु है। अपनी अवस्था में अधर्म / अशान्ति है, उसे दूर करके धर्म /शान्ति प्रगट करना है; वह शान्ति अपने आधार से और परिपूर्ण होनी चाहिए। जिसे ऐसी जिज्ञासा हो, वह पहले यह निश्चय करे कि मैं एक आत्मा अपना परिपूर्ण सुख प्रगट करना चाहता हूँ तो वैसा परिपूर्ण सुख किसी को प्रगट हुआ होना चाहिए। यदि परिपूर्ण सुखआनन्द प्रगट न हो तो दु:खी कहलाएगा। जिसे परिपूर्ण और स्वाधीन आनन्द प्रगट हुआ है, वही सम्पूर्ण सुखी है और ऐसे सर्वज्ञ ही हैं।
इस प्रकार जिज्ञासु अपने ज्ञान में सर्वज्ञ का निर्णय करता है। इसमें पर का करने-धरने की बात तो है ही नहीं। जब वह पर से किञ्चित् पृथक् हुआ है, तब तो आत्मा की जिज्ञासा हुई है। यह तो पर से अलग होकर, अब जिसे अपना हित करने की तीव्र आकाँक्षा जागृत हुई है - ऐसे जिज्ञासु जीव की बात है। परद्रव्य के प्रति जो सुखबुद्धि और रुचि है, उसे दूर कर देना, वह पात्रता है तथा स्वभाव की रुचि और पहचान का होना, उस पात्रता का फल है। दु:ख का मूल, भूल है। जिसने अपनी भूल से दुःख उत्पन्न किया है, यदि वह अपनी भूल को दूर कर दे तो उसका दु:ख दूर हो जाए। अन्य किसी ने वह भूल नहीं करायी है; इसलिए दूसरा कोई अपना दु:ख दूर करने में समर्थ नहीं है।
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