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________________ www.vitragvani.com [147 सम्यग्दर्शन : भाग-1] भगवान ने अन्य जीवों की दया की स्थापना की है, यह बात मिथ्या है। यह जीव, परजीव की क्रिया कर ही नहीं सकता तो फिर भगवान उसे बचाने के लिये क्यों कहेंगे? भगवान ने तो आत्मस्वभाव को पहचानकर, अपने आत्मा को कषायभाव से बचाने को कहा है और यही सच्ची दया है। अपने आत्मा का निर्णय किये बिना कोई क्या करेगा? भगवान के श्रुतज्ञान में तो यह कहा है कि तू अपने से परिपूर्ण वस्तु है। प्रत्येक तत्त्व अपने आप ही स्वतन्त्र है। किसी तत्त्व को दूसरे तत्त्व का आश्रय नहीं है। इस प्रकार वस्तु के स्वरूप को पृथक् रखना, वह अहिंसा है और एक द्रव्य, दूसरे द्रव्य का कुछ कर सकता है - इस प्रकार वस्तु को पराधीन मानना, वह हिंसा है। आनन्द प्रगट करने की भावनावाला क्या करे? : जगत् के जीवों को सुख चाहिए है; सुख कहो या धर्म कहो - एक ही है। धर्म करना है; अर्थात्, आत्मशान्ति चाहिए है। आत्मा की अवस्था में दुःख का नाश करके वीतराग आनन्द प्रगट करना है। यह आनन्द ऐसा चाहिए कि जो स्वाधीन हो; जिसके लिए पर का अवलम्बन न हो - ऐसा आनन्द प्रगट करने की जिसकी यथार्थ भावना हो, वह जिज्ञासु कहलाता है। अपना पूर्णानन्द प्रगट करने की भावनावाला जिज्ञासु पहले यह देखे कि ऐसा पूर्णानन्द किसे प्रगट हुआ? स्वयं को अभी वैसा आनन्द प्रगट नहीं हुआ है। यदि अपने को वैसा आनन्द प्रगट हो तो फिर आनन्द प्रगट करने की भावना न हो। तात्पर्य यह है कि अभी स्वयं को वैसा आनन्द प्रगट नहीं हुआ, किन्तु अपने में जैसी Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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