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( सत् की प्राप्ति के लिए अर्पणता )
आत्मा प्रिय हुआ कब कहा जाता है, अर्थात् यह कब कहा जाता है कि आत्मा की कीमत या प्रतिष्ठा हुई? पहली बात तो यह है कि जो वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा हो गए हैं, ऐसे अरहन्तदेव के प्रति सच्ची प्रीति होनी चाहिए, किन्तु विषय-कषाय या कुदेवादि के प्रति जो तीव्र राग है, उसे दूर करके सच्चे-देव-गुरु के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने के लिये भी जो जीव, मन्दराग नहीं कर सकते, वे जीव बिल्कुल रागरहित आत्मस्वरूप की श्रद्धा कहाँ से पा सकेंगे?
जिसमें परम उपकारी वीतरागी देव-गुरु-धर्म के लिए भी राग कम करने की भावना नहीं है, वह अपने आत्मा के लिए राग का बिल्कुल अभाव कैसे कर सकेगा? जिसमें दो पाई देने की शक्ति नहीं है, वह दो लाख रुपया कहाँ से दे सकेगा? उसी प्रकार जिसे देव-गुरु की सच्ची प्रीति नहीं है - व्यवहार में भी अभी जो राग कम नहीं कर सकता, वह निश्चय में यह जैसे और कहाँ से ला सकेगा कि 'राग मेरा स्वरूप नहीं है।' जिसे देव-गुरु की सच्ची श्रद्धा-भक्ति नहीं है, उसे तो निश्चय या व्यवहार में कोई भी सच्चा नहीं है, मात्र अकेले मूढभाव की पुष्टि होती है - वह केवल तीव्र कषाय और शुष्कज्ञान को ही पुष्ट करता है।
प्राथमिक दशा में देव-गुरु-धर्म की भक्ति का शुभराग जाग्रत होता है और उसी के आवेश में भक्त सोचता है कि देव-गुरु-धर्म
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