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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [139 के लिये तृष्णा कम करके अर्पित हो जाऊँ, उनके लिए अपने शरीर की चमड़ी उतरवाकर यदि जूते बनवा दूँ तो भी उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता । इस तरह की सर्वस्व समर्पण की भावना अपने मन में आये बिना देव-गुरु-धर्म के प्रति सच्ची प्रीति उत्पन्न नहीं होती और देव-गुरु-धर्म की प्रीति के बिना आत्मा की पहिचान नहीं हो सकती। देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति और अर्पणता के आये बिना तीन लोक और त्रिकाल में भी आत्मा में प्रामाणिकता उत्पन्न नहीं हो सकती और न आत्मा में निज के लिये ही समर्पण की भावना उत्पन्न हो सकती है। तू एक बार गुरुचरणों में अर्पित हो जा ! पश्चात् गुरु ही तुझे अपने में समा जाने की आज्ञा देंगे। एक बार तू सत् की शरण में झुक जा और यही स्वीकार कर कि उसकी हाँ ही हाँ है और ना ही ना ! तुझमें सत् की अर्पणता आने के बाद सन्त कहेंगे कि तू परिपूर्ण है, अब तुझे मेरी आवश्यकता नहीं है; तू स्वयं ही अपनी ओर देख ! यही आज्ञा है और यही धर्म है। एक बार सत्-चरण में समर्पित हो जा। सच्चे-देव- गुरु के प्रति समर्पित हुए बिना आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता, किन्तु यदि उन्हीं का आश्रय मानकर बैठ जाए तो भी पराश्रय होने के कारण आत्मा का उद्धार नहीं होगा। इस प्रकार परमार्थस्वरूप मैं तो भगवान आत्मा अकेला ही है, परन्तु वह परमार्थस्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता, तब तक पहले देव-गुरु-शास्त्र को स्वत्वरूप के आँगन में विराजमान करना, यह व्यवहार है । देव - गुरु- शास्त्र की भक्ति-पूजा के बिना केवल निश्चय की मात्र बातें करनेवाला शुष्कज्ञानी है। Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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